श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
अष्टादश अध्याय
(2) शास्त्रों में आता है कि पुण्यों की अधिकता होने से जीव स्वर्ग में जाता है और पापों की अधिकता होने से नरकों में जाता है तथा पुण्य-पाप समान होने से मनुष्य बनता है। इस दृष्टि से किसी भी वर्ण, आश्रम, देश, वेश आदि का कोई भी मनुष्य सर्वथा पुण्यात्मा या पापात्मा नहीं हो सकता। पुण्य-पाप समान होने पर जो मनुष्य बनता है, उसमें भी अगर देखा जाए तो पुण्य-पापों का तारतम्य रहता है अर्थात किसी के पुण्य अधिक होते हैं और किसी के पाप अधिक होते हैं।[1] ऐसे ही गुणों का विभाग भी है। कुल मिलाकर सत्त्वगुण की प्रधानता वाले ऊर्ध्वलोक में जाते हैं, रजोगुण की प्रधानता वाले मध्यलोक अर्थात मनुष्यलोक में आते हैं, और तमोगुण की प्रधानता वाले अधोगति में जाते हैं। इन तीनों में भी गुणों के तारतम्य से अनेक तरह के भेद होते हैं। सत्त्वगुण की प्रधानता से ब्राह्मण, रजोगुण की प्रधानता और सत्त्वगुण की गौणता से क्षत्रिय, रजोगुण की प्रधानता और तमोगुण की गौणता से वैश्य तथा तमोगुण की प्रधानता से शूद्र होता है। यह तो सामान्य रीति से गुणों की बात बतायी है। अब इनके अवान्तर तारतम्य का विचार करते हैं- रजोगुण-प्रधान मनुष्यों में सत्त्वगुण की प्रधानता वाले ब्राह्मण हुए। इन ब्राह्मणों में भी जन्म के भेद से ऊँच-नीच ब्राह्मण माने जाते हैं और परिस्थिति रूप से कर्मों का फल भी कई तरह का आता है। अर्थात सब ब्राह्मणों की एक समान अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति नहीं आती। इस दृष्टि से ब्राह्मणयोनि में भी तीनों गुण मानने पड़ेंगे। ऐसे ही क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र भी जन्म से ऊँच-नीच माने जाते हैं और अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति भी कई तरह की आती है। इसलिए गीता में कहा गया है कि तीनों लोकों में ऐसी कोई भी वस्तु नहीं है, जो तीनों गुणों से रहित हो।[2] अब जो मनुष्येतर योनि वाले पशु-पक्षी आदि हैं, उनमें भी ऊँच-नीच माने जाते हैं; जैसे गाय आदि श्रेष्ठ माने जाते हैं और कुत्ता, गधा, सूअर आदि नीच माने जाते हैं। कबूतर आदि श्रेष्ठ माने जाते हैं और कौआ, चील आदि नीच माने जाते हैं। इन सबको अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति भी एक समान नहीं मिलती। तात्पर्य है कि ऊर्ध्वगति, मध्यगति और अधोगति वालों में भी कई तरह के जाति-भेद और परिस्थिति भेद होते हैं। संबंध- अब भगवान ब्राह्मण के स्वाभाविक कर्म बताते हैं।
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ जैसे परीक्षा में अनेक विषय होते हैं और उन विषयों में से किसी विषय में कम और किसी विषय में अधिक नम्बर मिलते हैं। उन सभी विषयों के नम्बरों को मिलाकर कुल कितने नम्बर आते हैं, उनसे परीक्षाफल तैयार होता है। ऐसे ही प्रत्येक मनुष्य के किसी विषयों में पुण्य अधिक होते हैं और किसी विषय में पाप अधिक होते हैं, और कुल मिलाकर जितने पुण्य-पाप होते हैं, उसके अनुसार उसको जन्म मिलता है। अगर अलग-अलग विषयों में सबके पुण्य-पाप समान होते हैं, तो सभी को बराबर अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति मिलती है, पर ऐसा होता है। इसलिए सभी के पुण्य-पापों में अनेक प्रकार का तारतम्य रहता है। यही बात सत्त्वादि गुणों के विषय में भी समझनी चाहिए।
- ↑ गीता 18:40
संबंधित लेख
श्लोक संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज