श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
अष्टादश अध्याय
अधिष्ठानं तथा कर्ता करणं च पृथग्विधम् ।
व्याख्या- ‘अधिष्ठानम्’- शरीर और जिस देश में यह शरीर स्थिति है, वह देश- ये दोनों ‘अधिष्ठान’ हैं। ‘कर्ता’- संपूर्ण क्रियाएँ प्रकृति और प्रकृति के कार्यों के द्वारा ही होती हैं। वे क्रियाएँ चाहे समष्टि हों, चाहे व्यष्टि हों; परंतु उन क्रियाओं का कर्ता ‘स्वयं’ नहीं है। केवल अहंकार से मोहित अंतःकरण वाला अर्थात जिसको चेतन और जड का ज्ञान नहीं है- ऐसा अविवेकी पुरुष ही जब प्रकृति से होने वाली क्रियाओं को अपनी मान लेता, तब वह ‘कर्ता’ बन जाता है।[1] ऐसा ‘कर्ता’ ही कर्मों की सिद्धि में हेतु बनता है। ‘करणं च पृथग्विधम्’- कुल तेरह करण हैं। पाणि, पाद, वाक्, उपस्थ और पायु- ये पाँच कर्मेंद्रियाँ और श्रोत्र, चक्षु, त्वक्, रसना और घ्राण- ये पाँच ज्ञानेंद्रियाँ- ये दस ‘बहिःकरण’ हैं तथा मन, बुद्धि और अहंकार- ये तीन ‘अंतःकरण’ हैं। ‘विविधाश्च पृथक्चेष्टाः’- उपर्युक्त तेरह करणों की अलग-अलग चेष्टाएँ होती हैं; जैसे- पाणि (हाथ) आदान-प्रदान करना, पाद (पैर)- आना-जाना, चलना-फिरना, वाक्- बोलना, उपस्थ- मूत्र का त्याग करना, पायु (गुदा)- मल का त्याग करना, श्रोत्र- सुनना, चक्षु- देखना, त्वक्- स्पर्श करना, रसना- चखना, घ्राण- सूँघना, मन- मनन करना, बुद्धि- निश्चय करना और अहंकार- ‘मैं ऐसा हूँ’ आदि अभिमान करना। ‘दैवं चैवात्र पंचमम्’- कर्मों की सिद्धि में पाँचवें हेतु का नाम ‘दैव’ है। यहाँ दैव नाम संस्कारों का है। मनुष्य जैसा कर्म करता है, वैसा ही संस्कार उसके अंतःकरण पर पड़ता है। शुभ कर्म का शुभ संस्कार पड़ता है और अशुभ-कर्म का अशुभ संस्कार पड़ता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ संपूर्ण क्रियाएँ प्रकृति के द्वारा ही होती हैं- इसका वर्णन गीता में कई रीतियों से आता है; जैसे- (1) सब कर्म प्रकृति के द्वारा ही किए जाते हैं- ‘प्रकृत्यैव च कर्माणि क्रियमाणि सर्वशः’ (13।29), संपूर्ण कर्म प्रकृति के गुणों के द्वारा किए जाते हैं- ‘प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः’ (गीता 3:27)।
(2) गुण ही गुणों में बरतते हैं- ‘गुणा गुणेषु वर्तन्ते’ (गीता 3:28); द्रष्टा गुणों के सिवाय अन्य किसी को कर्ता नहीं देखता- ‘नान्यं गुणेभ्यः कर्तारें यदा द्रष्टानुपश्यति’ (गीता 14:19)।
(3) सब इंद्रियाँ अपने-अपने अर्थों (विषयों) में बरतती है- ‘इंद्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्ते’ (5।9)।
(4) यहाँ (गीता 18:14 में) कर्मों की सिद्धि में अधिष्ठान आदि पाँच हेतु बताए गये हैं। इन सबका तात्पर्य यह है कि प्रकृति और पुरुष- इन दोनों में से केवल प्रकृति में ही क्रियाएँ होती हैं, पुरुष में नहीं। प्रकृति के साथ तादात्म्य करने से ही पुरुष उन क्रियाओं को अपनी मान लेता है। जैसे, कोई मनुष्य वायुयान में बैठाकर यह मान लेता है कि मैं वायुयान द्वारा जा रहा हूँ, जबकि वास्तव में वायुयान ही चलता है, मनुष्य नहीं। ऐसे ही पुरुष अपने को प्रकृति की क्रियाओं का कर्ता मान लेता है- ‘अहंकारविमूढ़ात्मा कर्ताहमिति मन्यते’ (गीता 3:27)। तत्त्व को जानने वाला विवेकी पुरुष ऐसा अनुभव कराते है कि सब क्रियाएँ प्रकृति और प्रकृति के कार्य में ही हो रही हैं, इनमें मैं कुछ भी नहीं करता हूँ- ‘नैव किंचित्करोमीति युक्तो मन्यते तत्त्ववित्’ (5।8)।
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