श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
सप्तदश अध्याय
वास्तव में दोषों की पूर्ण निवृत्ति तो निष्कामभावपूर्वक कर्तव्य-कर्म करके उन कर्मों को भगवान् के अर्पण कर देने से ही होती है। इसलिए निष्कामभाव सहित किए गए कर्म ही श्रेष्ठ हैं। सबसे बड़ी शुद्धि (दोष-निवृत्ति) होती है- ‘मैं तो केवल भगवान का ही हूँ’, इस प्रकार अहंता परिवर्तनपूर्वक कर्तव्य कर्म करके उन कर्मों को भगवान के अर्पण कर देने से होती है। इसलिए निष्कामभावसहित किए गए कर्म ही श्रेष्ठ हैं। सबसे बड़ी शुद्धि (दोष-निवृत्ति) होती है- ‘मैं तो केवल भगवान का ही हूँ’, इस प्रकार अहंता- परिवर्तनपूर्वक भगवत्प्राप्ति का उद्देश्य बनाने से। इससे शुद्धि होती है, उतनी कर्मों से नहीं होती।[1] भगवान ने कहा है-
तीसरी बात, गीता में अर्जुन ने पूछा कि मनुष्य न चाहता हुआ भी पाप का आचरण क्यों करता है? तो उत्तर में भगवान ने कहा- ‘काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः’।[3] तात्पर्य है कि रजोगुण से उत्पन्न कामना ही पाप कराती है। इसलिए कामना को लेकर किए जाने वाले राजस यज्ञ की क्रियाओं में पाप हो सकते हैं। राजस तथा तामस यज्ञ आदि करने वाले आसुरी-संपत्ति वाले हैं और सात्त्विक यज्ञ आदि करने वाले दैवी-संपत्ति वाले हैं; परंतु दैवी संपत्ति के गुणों में भी यदि ‘राग’ हो जाता है, तो रजोगुण का धर्म होने से वह राग भी बंधनकारक हो जाता है[4] संबंध- सोलहवें अध्याय के पाँचवें श्लोक में दैवी-संपत्ति मोक्ष के लिए और आसुरी-संपत्ति बंधन के लिए बतायी है। दैवी-संपत्ति को धारण करने वाले सात्त्विक मनुष्य परमात्मप्राप्ति के उद्देश्य से जो यज्ञ, तप और दानरूप कर्म करते हैं, उन कर्मों में होने वाली (भाव, विधि, क्रिया आदि की) कमी की पूर्ति के लिए क्या करना चाहिए? इसे बताने के लिए भगवान आगे का प्रकरण आरंभ करते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ दूसरों की उन्नति सही न जाए, ईर्ष्या हो जाए आदि जितने भी दोष हैं, वे पूर्वकृत कर्मों के फल नहीं हैं। वे सब दोष अंतःकरण की अशुद्धि के कारण ही होते हैं। शास्त्रविहित सकाम कर्मों को करने से अंतःकरण की सर्वथा शुद्धि नहीं होती, प्रत्युत आंशिक शुद्धि होती है, जिससे स्वर्गादि लोकों के भोगों को भोगते हैं। अंतःकरण की अशुद्धि सर्वथा तभी मिटती है, जब उद्देश्य केवल भगवान का ही हो।
- ↑ मानस 5।44।1
- ↑ गीता 3:37
- ↑ गीता 14:6
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