श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
षोडश अध्याय
व्याख्या- ‘तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ’- जिन मनुष्यों को अपने प्राणों से मोह होता है, वे प्रवृत्ति और निवृत्ति अर्थात कर्तव्य और अकर्तव्य को न जानने से विशेष रूप से आसुरी-संपत्ति में प्रवृत्त होते हैं। इसलिए तू कर्तव्य और अकर्तव्य का निर्णय करने के लिए शास्त्र को सामने रख। जिनकी महिमा शास्त्रों ने गायी है और जिनका बर्ताव शास्त्रीय सिद्धांत के अनुसार होता है, ऐसे संत-महापुरुषों के आचरणों और वचनों के अनुसार चलना भी शास्त्रों के अनुसार ही चलना है। कारण कि उन महापुरुषों ने शास्त्रों को आदर दिया है, और शास्त्रों के अनुसार चलने से ही वे श्रेष्ठ पुरुष बने हैं। वास्तव में देखा जाए तो जो महापुरुष परमात्मतत्त्व को प्राप्त हुए हैं, उनके आचरणों, आदर्शों, भावों आदि से ही शास्त्र बनते हैं। ‘शास्त्रं प्रमाणम्’ का तात्पर्य यह है कि लोक-परलोक का आश्रय लेकर चलने वाले मनुष्यों के लिए कर्तव्य-अकर्तव्य की व्यवस्था में शास्त्र ही प्रमाण है। ‘ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं कर्म कर्तुमिहार्हसि[1]’- प्राणपोषण-परायण मनुष्य शास्त्रविधि को (कि किसमें प्रवृत्त होना है और किससे निवृत्त होना है) नहीं जानते[2]; इसलिए उनको सिद्धि आदि की प्राप्ति नहीं होती। भगवान अर्जुन से कहते हैं कि तू तो दैवी-संपत्ति को प्राप्त है; अतः तू शास्त्रविधि को जानकर कर्तव्य का पालन करने योग्य है। अर्जुन पहले अपनी धारणा से कहते थे कि युद्ध करने से मुझे पाप लगेगा, जबकि भाग्यशाली श्रेष्ठ क्षत्रियों के लिए अपने-आप प्राप्त हुआ युद्ध स्वर्ग को देने वाला है।[3] भगवान कहते हैं कि भैया! तू पाप-पुण्य का निर्णय अपने मनमाने ढंग से कर रहा है; तुझे तो इस विषय में शास्त्र में प्रमाण रखना चाहिए। शास्त्र की आज्ञा समझकर ही तुझे कर्तव्य-कर्म करना चाहिए। इसका तात्पर्य यह है कि युद्धरूप क्रिया बाँधने वाली नहीं है, प्रत्युत स्वार्थ और अभिमान रखकर की हुई शास्त्रीय क्रिया (यज्ञ, दान आदि) ही बाँधने वाली होती है; और मनमाने ढंग से (शास्त्र-विपरीत) की हुई क्रिया तो पतन करने वाली होती है। स्वतः प्राप्त युद्धरूप क्रिया क्रूर और हिंसारूप दीखती हुई भी पापजनक नहीं होती।[4] तात्पर्य है कि स्वभावनियत कर्म करता हुआ सर्वथा स्वार्थरहित मनुष्य पाप को प्राप्त नहीं होता अर्थात ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और [[शूद्र] -इनके स्वभाव के अनुसार शास्त्रों ने जो आज्ञा दी है, उसके अनुसार कर्म करने से मनुष्य को पाप नहीं लगता। पाप लगता है- स्वार्थ से, अभिमान से और दूसरों का अनिष्ट सोचने से। मनुष्य जन्म की सार्थकता यही है कि वह शरीर के मोह में न फँसकर केवल परमात्मप्राप्ति के उद्देश्य से शास्त्रविहित कर्मों को करे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ यहाँ ‘इह’ पद देने का तात्पर्य है कि इस संसार में मनुष्य-शरीर केवल श्रेष्ठ कर्म करके परमात्मा को प्राप्त करने के लिए ही मिला है। अतः यह अवसर कभी वृथा न जाने दे।
- ↑ गीता 16:7
- ↑ गीता 2:32
- ↑ गीता 18:47
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