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श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
चतुर्दश अध्याय
निन्दा और स्तुति- ये दोनों ही परकृत क्रियाएँ हैं। उन क्रियाओं से राजी-नाराज होना गलती है। कारण कि जिसका स्वभाव है, जैसी धारणा है, वह उसके अनुसार ही बोलता है। वह हमारे अनुकूल ही बोले, हमारी निन्दा न करे- यह न्याय नहीं है अर्थात उसको बोलने में बाध्य करने का भाव न्याय नहीं है, अन्याय है। दूसरों पर हमारा क्या अधिकार है कि तुम हमारी निन्दा मत करो? हमारी स्तुति ही करो? दूसरी बात, कोई निन्दा करता है तो उसमें साधक को प्रसन्न होना चाहिए कि इससे मेरे पाप कट रहे हैं, मैं शुद्ध हो रहा हूँ। अगर कोई हमारी प्रशंसा करता है, तो उससे हमारे पुण्य नष्ट होते हैं। अतः प्रशंसा में राजी नहीं होना चाहिए; क्योंकि राजी होने में खतरा है।
‘मानापमानयोस्तुल्यः’- मान और अपमान होने में शरीर की मुख्यता होती है। गुणातीत मनुष्य का शरीर के साथ तादात्म्य नहीं रहता। अतः कोई उसका आदर करे या निरादर करे, मान करे या अपमान करे, इन परकृत क्रियाओं का उस पर कोई असर नहीं पड़ता। निन्दा-स्तुति और मान-अपमान- इन दोनों ही परकृत क्रियाओं में गुणातीत मनुष्य सम रहता है। इन दोनों परकृत क्रियाओं का ज्ञान होना दोषी नहीं है, प्रत्युत निन्दा और अपमान में दुःखी होना तथा स्तुति और मान में हर्षित होना दोषी है; क्योंकि ये दोनों ही प्रकृति के विकार हैं। गुणातीत पुरुष को निन्दा स्तुति और मान-अपमान का ज्ञान तो होता है, पर गुणों से संबंध विच्छेद होने से, नाम और शरीर के साथ तादात्म्य न रहने से वह सुखी-दुःखी नहीं होता। कारण कि वह जिस तत्त्व में स्थित है, वहाँ ये विकार नहीं है। वह तत्त्व गुणरहित है, निर्विकार है।
‘तुल्यो मित्रारिपक्षयोः’- वह मित्र और शत्रु के पक्ष में सम रहता है। यद्यपि गुणातीत मनुष्य की दृष्टि में कोई मित्र और शत्रु नहीं होता, तथापि दूसरे लोग अपनी भावना के अनुसार उसे अपना मित्र अथवा शत्रु भी मान सकते हैं। साधारण मनुष्य को भी दूसरे लोग अपनी भावना के अनुसार मित्र या शत्रु मान सकते हैं; किंतु इस बात का पता लगने पर उस मनुष्य पर इसका असर पड़ता है, जिससे उसमें राग-द्वेष उत्पन्न हो सकते हैं। परंतु गुणातीत मनुष्य पर इस बात का पता लगने पर भी कोई असर नहीं पड़ता। वस्तुतः मित्र और शत्रु की भावना के कारण ही व्यवहार में पक्षपात होता है। गुणातीत मनुष्य के कहलाने वाले अंतःकरण में मित्र-शत्रु की भावना ही नहीं होती; अतः उसके व्यवहार में पक्षपात नहीं होता।
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