श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
चतुर्दश अध्याय
उदासीनवदासीनो गुणैर्यो न विचाल्यते । अर्थ- जो उदासीन की तरह स्थित है औ जो गुणों के द्वारा विचलित नहीं किया जा सकता तथा गुण ही (गुणों में) बरत रहे हैं- इस भाव से जो अपने स्वरूप में ही स्थित रहता है और स्वयं कोई भी चेष्टा नहीं करता। व्याख्या- ‘उदासीनवदासीनः’- दो व्यक्ति परस्पर विवाद करते हों, तो उन दोनों में से किसी एक का पक्ष लेने वाला ‘पक्षपाती’ कहलाता है और दोनों का न्याय करने वाला ‘मध्यस्थ’ कहलाता है। परंतु जो उन दोनों को देखता तो है, पर न तो किसी का पक्ष लेता है और न किसी से कुछ कहता ही है, वह ‘उदासीन’ कहलाता है। ऐसे ही संसार और परमात्मा- दोनों को देखने से गुणातीत मनुष्य उदासीन की तरह दीखता है। वास्तव में देखा जाए तो संसार की स्वतंत्र सत्ता है ही नहीं। सत्-स्वरूप परमात्मा की सत्ता से ही संसार सत्ता वाला दीख रहा है। अतः जब गुणातीत मनुष्य की दृष्टि में संसार की सत्ता है ही नहीं, केवल एक परमात्मा की सत्ता ही है, तो फिर वह उदासीन किससे हो? परंतु जिनकी दृष्टि में संसार और परमात्मा की सत्ता है, ऐसे लोगों की दृष्टि में वह गुणातीत मनुष्य की तरह दीखता है। ‘गुणैर्यो न विचाल्यते’- उसके कहलाने वाले अंतःकरण में सत्त्व, रज, और तम- इन गुणों की वृत्तियाँ तो आती हैं, पर वह इनसे विचलित नहीं होता। तात्पर्य है कि जैसे अपने सिवाय दूसरों के अंतःकरण में गुणों की वृत्तियाँ आने पर अपने में कुछ भी फरक नहीं पड़ता, ऐसे ही उसके कहलाने वाले अंतःकरण में गुणों की वृत्तियाँ आने पर उसमें कुछ भी फरक नहीं किया जा सकता। कारण कि उसके कहे जाने वाले अंतःकरण में अंतःकरण सहित संपूर्ण संसार का अत्यंत अभाव एवं परमात्मा का भाव निरंतर स्वतः स्वाभाविक जाग्रत रहता है। ‘गुणा वर्तन्त इत्येव योऽवतिष्ठति’- गुण ही गुणों में बरत रहे हैं[2] अर्थात गुणों में ही संपूर्ण क्रियाएँ हो रही हैं- ऐसा समझकर वह अपने स्वरूप में निर्विकार रूप से स्थित रहता है। ‘न इंगते’- पहले ‘गुणा वर्तन्त इत्येव’ पदों से उसका गुणों के साथ संबंध का निषेध किया, अब ‘न इंगते’ पदों से उसमें क्रियाओं का अभाव बताते हैं। तात्पर्य है कि गुणातीत पुरुष खुद कुछ भी चेष्टा नहीं करता। कारण कि अविनाशी शुद्ध स्वरूप में कभी कोई क्रिया होती ही नहीं। [बाईसवें और तेईसवें- इन दो श्लोकों में भगवान ने गुणातीत महापुरुष की तटस्थता, निर्लिप्तता का वर्णन किया है।] संबंध- इक्कीसवें श्लोक में अर्जुन ने दूसरे प्रश्न के रूप में गुणातीत मनुष्य के आचरण पूछे थे। उसका उत्तर अब आगे के दो श्लोकों में देते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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