श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
चतुर्दश अध्याय
जैसे- कर्म तो अच्छे हैं, पर अंतिम चिन्तन कुत्ते का हो गया, तो अंतिम चिंतन के अनुसार वह कुत्ता बन जाएगा; परंतु उस योनि में भी उसको कर्मों के अनुसार बहुत सुख-आराम मिलेगा। कर्म तो बुरे हैं, पर अंतिम चिंतन मनुष्य आदि का हो गया, तो अंतिम चिंतन के अनुसार वह मनुष्य बन जाएगा; परंतु उसको कर्मों के फलरूप में भयंकर परिस्थिति मिलेगी। उसके शरीर में रोग ही रोग रहेंगे। खाने के लिए अन्न, पीने के लिए जल और पहनने के लिए कपड़ा भी कठिनाई से मिलेगा। सात्त्विक गुण को बढ़ाने के लिए साधक सत्-शास्त्रों के पढ़ने में लगा रहे। खाना-पीना भी सात्त्विक करे, राजस-तामस खान-पान न करे। सात्त्विक श्रेष्ठ मनुष्यों का ही संग करे, उन्हीं के सान्निध्य में रहे, उनके कहे अनुसार साधन करे। शुद्ध, पवित्र तीर्थ आदि स्थानों का सेवन करे; जहाँ कोलाहल होता हो, ऐसे राजस स्थानों का और जहाँ अंडा, मांस, मदिरा बिकती हो, ऐसे तामस स्थानों का सेवन न करे। प्रातःकाल और सायंकाल का समय सात्त्विक माना जाता है; अतः इस सात्त्विक समय का विशेषता से सदुपयोग करे अर्थात इसे भजन, ध्यान आदि में लगाए। शास्त्रविहित शुभ-कर्म ही करे, निषिद्ध कर्म कभी न करे; राजस-तामस कर्म कभी न करे। जो जिस वर्ण, आश्रम में स्थित है, उसी में अपने-अपने कर्तव्य का ठीक तरह से पालन करे। ध्यान भगवान का ही करे। मंत्र भी सात्त्विक ही जपे। इस प्रकार सब कुछ सात्त्विक करने से पुराने संस्कार मिट जाते हैं और सात्त्विक संस्कार (सत्त्वगुण) बढ़ जाते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ गीता 14:15
- ↑ गीता 16:36
संबंधित लेख
श्लोक संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज