श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
चतुर्दश अध्याय
जिसका उद्देश्य संसार नहीं है, प्रत्युत परमात्मा है, वह साधारण मनुष्यों की तरह प्रकृति में स्थित नहीं है। अतः उसमें प्रकृतिजन्य गुणों की परवशता नहीं रहती और साधन करते-करते आगे चलकर तब अहंता परिवर्तित होकर लक्ष्य की दृढ़ता हो जाती है, तब उसको अपने स्वतः सिद्ध गुणातीत स्वरूप का अनुभव हो जाता है। इसी का नाम बोध है। इस बोध के विषय में भगवान ने इस अध्याय का पहला-दूसरा श्लोक कहा और गुणातीत के विषय में बाईसवें से छब्बीसवें तक के पाँच श्लोक कहे। इस तरह यह पूरा अध्याय गुणों से अतीत स्वतः सिद्ध स्वरूप का अनुभव करने के लिए ही कहा गया है। संबंध- तात्कालिक गुणों के बढ़ने पर मरने वालों की गति का वर्णन तो चौदहवें श्लोकों में कर दिया; परंतु जिनके जीवन में सत्त्वगुण, रजोगुण, अथवा तमोगुण की प्रधानता रहती है, उनकी (मरने पर) क्या गति होती है- इसका वर्णन आगे के श्लोक में करते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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