श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
चतुर्दश अध्याय
सत्त्वात्संजायते ज्ञानं रजसो लोभ एव च । अर्थ- सत्त्वगुण से ज्ञान और रजोगुण से लोभ आदि ही उत्पन्न होते हैं; तमोगुण से प्रमाद, मोह एवं अज्ञान भी उत्पन्न होता है। व्याख्या- ‘सत्त्वात्संजायते ज्ञानम्’- सत्त्वगुण से ज्ञान होता है अर्थात सुकृत-दुष्कृत कर्मों का विवेक जाग्रत होता है। उस विवेक से मनुष्य सुकृत, सत्कर्म ही करता है। उन सुकृत कर्मों का फल सात्त्विक, निर्मल होता है। ‘रजसो लोभ एव च’- रजोगुण से लोभ आदि पैदा होते हैं। लोभ को लेकर मनुष्य जो कर्म करता है, उन कर्मों का फल दुःख होता है। जितना मिला है, उसकी वृद्धि चाहने का नाम लोभ है। लोभ के दो रूप हैं- उचित खर्च न करना और अनुचित से संग्रह करना। उचित कामों में धन खर्च न करने से, उससे जी चुराने से मनुष्य के मन में अशांति, हलचल रहती है और अनुचित रीति से अर्थात झूठ, कपट आदि से धन का संग्रह करने से पाप बनते हैं, जिससे नरकों में तथा चौरासी लाख योनियों में दुःख भोगना पड़ता है। इस दृष्टि से राजस कर्मों का फल दुःख होता है। ‘प्रमादमोहौ तमसो भवतोऽज्ञानमेव च’- तमोगुण से प्रमाद, मोह और अज्ञान पैदा होता है। इन तीनों के बुद्धि में आने से विवेक-विरुद्ध काम होते हैं[1], जिससे अज्ञान ही बढ़ता है, दृढ़ होता है। यहाँ तो तमोगुण से अज्ञान का पैदा होना बताया है और इसी अध्याय के आठवें श्लोक में अज्ञान से तमोगुण का पैदा होना बताया। इसका तात्पर्य यह है कि जैसे वृक्ष से बीज पैदा होते हैं और उन बीजों से आगे बहुत से वृक्ष पैदा होते हैं, ऐसे ही तमोगुण से अज्ञान पैदा होता है और अज्ञान से तमोगुण बढ़ता है, पुष्ट होता है। पहले आठवें श्लोक में भगवान ने प्रमाद, आलस्य और निद्रा- ये तीन बताए। परंतु तेरहवें श्लोक में और यहाँ प्रमाद तो बताया, पर निद्रा नहीं बतायी। इससे यह सिद्ध होता है कि आवश्यक निद्रा तमोगुणी नहीं है और निषिद्ध भी नहीं है तथा बाँधने वाली भी नहीं है। कारण कि शरीर के लिए आवश्यक निद्रा तो सात्त्विक पुरुष को भी आती है और गुणातीत पुरुष को भी! वास्तव में अधिक निद्रा ही बाँधने वाली, निषिद्ध और तमोगुणी है; क्योंकि अधिक निद्रा से शरीर में आलस्य बढ़ता है, पड़े रहने का ही मन करता है, बहुत समय बरबाद हो जाता है। विशेष बात यह जीव साक्षात परमात्मा का अंश होते हुए भी जब प्रकृति के साथ संबंध जोड़ लेता है, तब इसका प्रकृतिजन्य गुणों के साथ संबंध जुड़ जाता है। फिर गुणों के अनुसार उसके अंतःकरण में वृत्तियाँ पैदा होती हैं। उन वृत्तियों के अनुसार कर्म होते हैं और इन्हीं कर्मों का फल ऊँच-नीच गतियाँ होती हैं। तात्पर्य है कि जीवित अवस्था में अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियाँ आती हैं और मरने के बाद ऊँच-नीच गतियाँ होती हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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