श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
चतुर्दश अध्याय
इस वास्तविकता की तरफ दृष्टि रखने से तमोगुण और रजोगुण दब जाते हैं तथा साधक में सत्त्वगुण की वृद्धि स्वतः हो जाती है। सत्त्वगुण में भोग-बुद्धि होने से अर्थात उससे होने वाले सुख में राग होने से यह सत्त्वगुण भी गुणातीत होने में बाधा उत्पन्न कर देता है। अतः साधक को सत्त्वगुण से उत्पन्न सुख का भी उपभोग नहीं करना चाहिए। सात्त्विक सुख का उपभोग करना रजोगुण अंश है। रजोगुण में राग बढ़ने पर राग में बाधा देने वाले के प्रति क्रोध पैदा होकर सम्मोह हो जाता है, और राग के अनुसार पदार्थ मिलने पर लोभ पैदा होकर सम्मोह हो जाता है। इस प्रकार सम्मोह पैदा होने से वह रजोगुण से तमोगुण में चला जाता है और उसका पतन हो जाता है।[1] संबंध- तात्कालिक बढ़े हुए गुणों की वृत्तियों का फल क्या होता है- इसे आगे के दो श्लोकों में बताते हैं।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ गीता 2।62-63
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