श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
चतुर्दश अध्याय
मार्मिक बात सत्त्व, रज और तम- तीनों गुणों की वृत्तियाँ स्वाभाविक ही उत्पन्न, नष्ट तथा कम-अधिक होती रहती है। ये सभी परिवर्तनशील हैं। साधक अपने जीवन में इन वृत्तियों के परिवर्तन का अनुभव भी करता है। इससे सिद्ध होता है कि तीनों गुणों की वृत्तियाँ बदलने वाली हैं और इनके परिवर्तन को जानने वाले पुरुष में कभी कोई परिवर्तन नहीं होता। तीनों गुणों की वृत्तियाँ दृश्य हैं और पुरुष इनको देखने वाला होने से द्रष्टा है। द्रष्टा दृश्य से सर्वथा भिन्न होता है- यह नियम है। दृश्य की तरफ दृष्टि होने से ही द्रष्टा संज्ञा होती है। दृश्य पर दृष्टि न रहने पर द्रष्टा संज्ञारहित रहता है। भूल यह होती है कि दृश्य को अपने में आरोपित करके वह ‘मैं कामी हूँ’, ‘मैं क्रोधी हूँ’ आदि मान लेता है। काम-क्रोधादि विकारों से संबंध जोड़कर उन्हें अपने में मान लेना उन विकारों को निमंत्रण देना है और उन्हें स्थायी बनाना है। मनुष्य भूल से क्रोध आने के समय क्रोध को उचित समझता है और कहता है कि यह तो सभी को आता है और अन्य समय ‘मेरा क्रोधी स्वभाव है’- ऐसा भाव रखता है। इस प्रकार ‘मैं क्रोधी हूँ’ ऐसा मान लेने से वह क्रोध अहंता में बैठ जाता है। फिर क्रोधरूप विकार से छूटना कठिन हो जाता है। यही कारण है कि साधक प्रयत्न करने पर भी क्रोधादि विकारों को दूर नहीं कर पाता और उनसे अपनी हार मान लेता है। काम-क्रोधादि विकारों को दूर करने का मुख्य और सुगम उपाय यह है कि साधक इनको अपने में कभी माने ही नहीं। वास्तव में विकार निरंतर नहीं रहते, प्रत्युत विकार रहित अवस्था निरंतर रहती है। कारण कि विकार तो आते और चले जाते हैं, पर स्वयं निरंतर निर्विकार रहता है। क्रोधादि विकार भी अपने में नहीं, प्रत्युत मन-बुद्धि में आते हैं। परंतु साधक मन-बुद्धि से मिलकर उन विकारों को भूल से अपने में मान लेता है। अगर वह विकारों को अपने में न माने, तो उनसे माना हुआ संबंध मिट जाता है। फिर विकारों को दूर करना नहीं पड़ता, प्रत्युत वे अपने आप दूर हो जाते हैं। जैसे, क्रोध के आने पर साधक ऐसा विचार करे कि ‘मैं तो वही हूँ; मैं आने-जाने वाले क्रोध से कभी मिल सकता ही नहीं।’ ऐसा विचार दृढ़ होने पर क्रोध का वेग कम हो जाएगा और वह पहले की अपेक्षा कम बार आएगा। फिर अंत में वह सर्वथा दूर हो जाएगा। |
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