श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
चतुर्दश अध्याय
‘रजस्येतानि जायन्ते विवृद्धे भरतर्षभ’- जब भीतर में रजोगुण बढ़ता है, तब उपर्युक्त लोभ, प्रवृत्ति आदि वृत्तियाँ बढ़ती हैं। ऐसे समय में साधक को यह विचार करना चाहिए कि अपना जीवन-निर्वाह तो हो ही रहा है, फिर अपने लिए और क्या चाहिए? ऐसा विचार करके रजोगुण की वृत्तियों को मिटा दे, उनसे उदासीन हो जाए। संबंध- बढ़े हुए तमोगुण के क्या लक्षण होते हैं- इसको आगे के श्लोक में बताते हैं। |
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