श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
त्रयोदश अध्याय
यथा सर्वगतं सौक्षम्यादाकाशं नोपलिप्यते । अर्थ- जैसे सब जगह व्याप्त आकाश अत्यंत सूक्ष्म होने से कहीं भी लिप्त नहीं होता, ऐसे ही सब जगह परिपूर्ण आत्मा किसी भी देह में लिप्त नहीं होता। व्याख्या- [पूर्वश्लोक में भगवान ने ‘न करोति’ पदों से पहले कर्तृत्व का और फिर ‘न लिप्यते’ पदों से भोक्तृत्व का अभाव बताया है। परंतु उन दोनों का विवेचन करते हुए इस श्लोक में पहले भोक्तृत्व के अभाव की बात बतायी है और आगे के श्लोक में कर्तृत्व के अभाव की बात बताएँगे। अतः यहाँ ऐसा व्यक्तिक्रम रखने में भगवान का क्या भाव है? इसका उत्तर यह है कि यद्यपि कर्तृत्व के बाद ही भोक्तृत्व होता है अर्थात कर्म करने के बाद ही उस कर्म के फल का भोग होता है, तथापि मनुष्य जो कुछ भी करता है, पहले किसी फल (सिद्धि) का उद्देश्य मन में रखकर ही करता है। अतः मन में पहले भोक्तृत्व आता है, फिर उसके अनुसार काम करता है अर्थात फिर कर्तृत्व आता है। इस दृष्टि से भगवान यहाँ सबसे पहले भोक्तृत्व का निषेध करते हैं। भोक्तृत्व (लिप्तता) का त्याग होने पर कर्तृत्व का त्याग स्वतः हो जाता है अर्थात फलेच्छा का त्याग होने पर क्रिया करने पर भी कर्तृत्व नहीं होता।] ‘यथा सर्वगतं सौक्षम्यादाकाशं नोपलिप्यते’- आकाश का कार्य वायु, तेज, जल और पृथ्वी है। अतः आकाश अपने कार्य वायु आदि चारों भूतों में व्यापक है, पर ये चारों आकाश में व्यापक नहीं है, प्रत्युत व्याप्त हैं। ये चारों आकाश के अंतर्गत हैं, पर आकाश इन चारों के अंतर्गत नहीं है। इसका कारण यह है कि आकाश की अपेक्षा ये चारों स्थूल हैं और आकाश इनकी अपेक्षा सूक्ष्म है। ये चारों सीमित हैं, सान्त हैं और आकाश असीम है, अनन्त है। इन चारों भूतों में विकार होते हैं, पर आकाश में विकार नहीं होता। ‘सर्वत्रावस्थितो देहे तथात्मा नोपलिप्यते’- जैसे आकाश वायु आदि चारों भूतों में रहता हुआ भी उनमें लिप्त नहीं होता, ऐसे ही सब जगह, सब शरीरों में रहने वाला आत्मा किसी भी शरीर में लिप्त नहीं होता। आत्मा सबमें परिपूर्ण रहता हुआ भी किसी में घुलता-मिलता नहीं। वह सदा-सर्वदा सर्वथा निर्लिप्त रहता है; क्योंकि आत्मा स्वयं नित्य, सर्वगत, स्थाणु, अचल, सनातन, अव्यक्त, अचिन्त्य और अविकारी है[1] तथा इस अविनाशी आत्मा से यह संपूर्ण संसार व्याप्त है।[2] संबंध- पूर्वश्लोक में भगवान ने आत्मा में भोक्तृत्व का अभाव बताया, अब आगे के श्लोक में आत्मा में कर्तृत्व का अभाव बताते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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