श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
त्रयोदश अध्याय
यदा भूतपृथग्भावमेकस्थमनुपश्यति । अर्थ- जिस काल में साधक प्राणियों के अलग-अलग भावों को एक प्रकृति में ही स्थित देखता है और उस प्रकृति से ही उन सबका विस्तार देखता है, उस काल में वह ब्रह्म को प्राप्त हो जाता है। व्याख्या- [प्रकृति के दो रूप हैं- क्रिया और पदार्थ। क्रिया से संबंध-विच्छेद करने के लिए उनतीसवाँ श्लोक कहा, अब पदार्थ से संबंध-विच्छेद करने के लिए यह तीसवाँ श्लोक कहते हैं।] ‘यदा भूतपृथग्भावं.....ब्रह्म सम्पद्यते तदा’- जिस काल में साधक संपूर्ण प्राणियों के अलग-अलग भावों को अर्थात त्रिलोकी में जितने जरायुज, अण्डज, उद्भिज्ज और स्वदेज प्राणी पैदा होते हैं, उन प्राणियों के स्थूल, सूक्ष्म और कारण-शरीरों को एक प्रकृति में ही स्थित देखता है, उस काल में वह ब्रह्म को प्राप्त हो जाता है। त्रिलोकी के स्थावर-जंगम प्राणियों के शरीर, नाम, रूप, आकृति, मनोवृत्ति, गुण, विकार, उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय आदि सब एक प्रकृति से ही उत्पन्न हैं। संपूर्ण प्राणियों के शरीर प्रकृति से ही उत्पन्न होते हैं, प्रकृति में ही स्थित रहते हैं और प्रकृति में ही लीन होते हैं। इस प्रकार देखने वाला ब्रह्म को प्राप्त हो जाता है अर्थात प्रकृति से अतीत स्वतः सिद्ध अपने स्वरूप परमात्मतत्त्व को प्राप्त हो जाता है। वास्तव में वह पहले से ही प्राप्त था, केवल प्रकृतिजन्य पदार्थों के साथ अपना संबंध मानने से ही उसको अपने स्वरूप का अनुभव नहीं होता था। परंतु जब वह सबको प्रकृति में ही स्थित और प्रकृति से ही उत्पन्न देखता है, तब उसको अपने स्वतः सिद्ध स्वरूप का अनुभव हो जाता है। जैसे पृथ्वी से उत्पन्न होने वाले स्थावर-जंगम जितने भी शरीर हैं तथा उन शरीरों में जो कुछ परिवर्तन होता है, रूपांतर होता है[1] क्रियाएँ होती हैं[2] वे सब पृथ्वी पर ही होती है। ऐसे ही प्रकृति से उत्पन्न होने वाले जितने गुण, विकार हैं तथा उनमें जो कुछ परिवर्तन होता है, घट-बढ़ होती है, वह सब-की-सब प्रकृति में ही होती है। तात्पर्य है कि जैसे पृथ्वी से पैदा होने वाले पदार्थ पृथ्वी में ही स्थित रहने से और पृथ्वी में लीन होने से पृथ्वी रूप ही हैं, ऐसे ही प्रकृति से पैदा होने वाला सब संसार प्रकृति में ही स्थित रहने से और प्रकृति में ही लीन होने से प्रकृति रूप ही है। इसी प्रकार स्थावर-जंगम प्राणियों के रूप में जो चेतन-तत्त्व है, वह निरंतर परमात्मा में ही स्थित रहता है। प्रकृति के संग में उसमें कितने ही विकार क्यों न दीखें, पर वह सदा असंग ही रहता है। ऐसा स्पष्ट अनुभव हो जाने पर साधक ब्रह्म को प्राप्त हो जाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ पहले मिट्टी और बीज को तौल ले और एक पात्र में वह तुली हुई मिट्टी बिछाकर बीज बो दे और पानी सींच दे। फसल होने पर उसको काटकर अनाज तैयार कर ले और मिट्टी को सूखने दे। सूखने के बाद मिट्टी और अनाज को तौलकर देखे तो मिट्टी का वजन कम तथा अनाज का वजन ज्यादा होगा। यह मिट्टी (पृथ्वी) का अनाज में रूपान्तर होना है।
- ↑ क्रियाएँ दो तरह की होती हैं- होना और करना। बालक का जवान और बूढ़ा होना आदि क्रियाएँ ‘होती’ हैं और खाना-पीना आदि क्रियाएँ ‘करते’ हैं। ये सब क्रियाएँ शरीर में ही होती हैं।
संबंधित लेख
श्लोक संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज