श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
त्रयोदश अध्याय
यदि मोह नहीं होगा, तो यह संसार नहीं दीखेगा, प्रत्युत एक परमात्मतत्त्व ही दीखेगा- ‘वासुदेवः सर्वम्’।[2] कारण कि परमात्मा ही था, परमात्मा ही रहेगा, बीच में दूसरा कहाँ से आयेगा? सोने के जितने गहने हैं, उनमें पहले सोना ही था फिर सोना ही रहेगा; अतः बीच में सोने के सिवाय दूसरा कहाँ से आएगा? गहना तो केवल (रूप, आकृति, उपयोग आदि को लेकर) कहने के लिए है, तत्त्वतः तो सोना ही है। ऐसे ही संसार केवल कहने के लिए है, तत्त्वतः तो परमात्मा ही है। उस परमात्मा का अनुभव करने में ही मनुष्य-जन्म की सफलता है। ‘है’ (परमात्मा) का अनुभव न करके ‘नहीं’- (संसार) में उलझ जाना मनुष्य नहीं है, प्रत्युत पशुता है। इस पशुता का त्याग करना है- ‘पशुबुद्धिमिमां जहि’।[3] इसलिए भगवान कहते हैं कि जो नष्ट होने वाले प्राणियों में नष्ट न होने वाले परमात्मा को देखता है, उसका देखना सही है। परंतु जो नष्ट होने वाले को देखता है और नष्ट न होने वाले को नहीं देखता, वह आत्मघाती है- योन्यथा सन्तमात्मानमन्यथा प्रतिपद्यते। ‘जो अन्य प्रकार का (अविनाशी) होते हुए भी आत्मा को अन्य प्रकार का (विनाशी) मानता है, उस आत्मघाती चोर ने कौन-सा पाप नहीं किया? जो नाशवान संसार को न देखकर सब जगह समान रूप से परिपूर्ण परमात्मतत्त्व को देखता है, वह आत्मघाती नहीं होता अर्थात वह अपने द्वारा अपनी हत्या नहीं करता, इसलिए वह परमगति को प्राप्त हो जाता है।' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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