श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
त्रयोदश अध्याय
समं पश्यन्हि सर्वत्र समवस्थितमीश्वरम् । अर्थ- क्योंकि सब जगह समरूप से स्थित ईश्वर को समरूप से देखने वाला मनुष्य अपने-आपसे अपनी हिंसा नहीं करता, इसलिए वह परमगति को प्राप्त हो जाता है। व्याख्या- ‘समं पश्यन्हि......हिनस्त्यात्मनात्मानम्’- जो मनुष्य स्थावर-जंगम, जड-चेतन प्राणियों में, ऊँच-नीच योनियों में, तीनों लोकों में समान रीति से परिपूर्ण परमात्मा को देखता है अर्थात उस परमात्मा के साथ अपनी अभिन्नता का अनुभव करता है, वह अपने द्वारा अपनी हत्या नहीं करता। जो शरीर के साथ तादात्म्य करके शरीर के बढ़ने से अपना बढ़ना और शरीर के घटने से अपना घटना, शरीर के बीमार होने से अपना बीमार होना और शरीर के नीरोग होने से अपना नीरोग होना, शरीर के जन्मने से अपना जन्मना और शरीर के मरने से अपना मरना मानता है तथा शरीर के विकारों को अपने विकार मानता है, वह अपने-आपसे अपनी हत्या करता है अर्थात अपने को जन्म-मरण के चक्कर में ले जाता है। परंतु जिसकी दृष्टि शरीर की तरफ से हटकर केवल सर्वव्यापक, सबके शासक परमात्मा की तरफ हो जाती है, वह फिर अपनी हत्या नहीं करता अर्थात जन्म-मरण के चक्कर में नहीं जाता, अपने में संसार और शरीर के विकारों का अनुभव नहीं करता। वास्तव में अपने-आपकी (स्वरूप की) हत्या अर्थात अभाव कभी कोई कर ही नहीं सकता और अपना अभाव कभी हो भी नहीं सकता तथा अपना अभाव करना कोई चाहता भी नहीं। वास्तव में नाशवान शरीर के साथ तादात्म्य करना ही अपनी हत्या करना है, अपना पतन करना है, अपने-आपको जन्म-मरण में ले जाना है। ‘ततो याति परां गतिम्’- शरीर के साथ तादात्म्य करके जो ऊँच-नीच योनियों में भटकता था, बार-बार जन्मता-मरता था, वह जब परमात्मा के साथ अपनी अभिन्नता का अनुभव कर लेता है, तब वह परमगति को अर्थात नित्यप्राप्त परमात्मा को प्राप्त हो जाता है। मार्मिक बात परमात्मतत्त्व सब देश में है, सब काल में है, संपूर्ण व्यक्तियों में है, संपूर्ण वस्तुओं में है, संपूर्ण घटनाओं में है, संपूर्ण परिस्थितियों में है, संपूर्ण क्रियाओं में है। वह सबमें एक रूप से, समान रीति से ज्यों-का-त्यों परिपूर्ण है। अब उसको प्राप्त करना कठिन है तो सुगम क्या होगा? जहाँ चाहो, वहीं प्राप्त कर लो। वास्तव में इस संसार का जो ‘है’ –पना दीखता है, वह संसार का नहीं है। संसार तो एक क्षण भी स्थिर नहीं रहता। इसमें केवल परिवर्तन-ही-परिवर्तन है। यह केवल परिवर्तन का ही पुंज है। जैसे पंखा तेजी से घूमता है तो एक चक्र दीखता है, पर वास्तव में वहाँ चक्र नहीं है, प्रत्युत पंखे की ताड़ ही चक्ररूप से दीखती है। ऐसे ही यह संसार ‘नहीं’ होते हुए भी ‘है’ –रूप से दीखता है। वास्तव में एक परमात्मतत्त्व ही ‘है’- रूप से विद्यमान है। |
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