श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
त्रयोदश अध्याय
यावत्संजायते किञ्चित्सत्त्वं स्थावरजंगमम् । अर्थ- हे भरतवंशियों में श्रेष्ठ अर्जुन! स्थावर और जंगम जितने भी प्राणी पैदा होते हैं, उनको तुम क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के संयोग से उत्पन्न हुए समझो। व्याख्या- ‘यावत्संजायते.........क्षेत्रक्षेत्रज्ञसंयोगात्’- स्थिर रहने वाले वृक्ष, लता, दूब, गुल्म, त्वक्सार, बेंत, बाँस, पहाड़ आदि जितने भी स्थावर प्राणी हैं और चलने-फिरने वाले मनुष्य, देवता, पशु, पक्षी, कीट, पतंग, मछली, कछुआ आदि जितने भी जंगम (थलचर, जलचर, नभचर) प्राणी हैं, वे सब-के-सब क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के संयोग से ही पैदा होते हैं। उत्पत्ति-विनाशशील पदार्थ ‘क्षेत्र’ हैं और जो इस क्षेत्र को जानने वाला, उत्पत्ति-विनाशरहित एवं सदा एकरस रहने वाला है, वह ‘क्षेत्रज्ञ’ है। उस क्षेत्रज्ञ- (प्रकृतिस्थ पुरुष) का जो शरीर के साथ मैं- मेरेपन का संबंध मानना है- यही क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का संयोग है। इस माने हुए संयोग के कारण ही इस जीव को स्थावर-जंगम योनियों में जन्म लेना पड़ता है। इसी क्षेत्रज्ञ के संयोग के पहले इक्कीसवें श्लोक में ‘गुणसंगः’ पद से कहा है। तात्पर्य यह हुआ कि निरंतर परिवर्तनशील प्रकृति और प्रकृति के कार्य शरीरादि के साथ तादात्म्य कर लेने से स्वयं जीवात्मा भी अपने को जन्मने मरने वाला मान लेता है। [स्थावर-जंगम प्राणियों के पैदा होने की बात तो यहाँ ‘संजायते’ पद से कह दी और उनके मरने की बात आगे के श्लोक में ‘विनश्यत्सु’ पद से कहेंगे।] ‘तद्विद्धि भरतर्षभ’- यह क्षेत्रज्ञ क्षेत्र के साथ अपना संबंध मानता है, इसी से इसका जन्म होता है; परंतु जब यह शरीर के साथ अपना संबंध नहीं मानता, तब इसका जन्म नहीं होता- इस बात को तुम ठीक समझ लो। संबंध- पूर्वश्लोक में भगवान ने बताया कि क्षेत्र (शरीर) के साथ संबंध रखने से, उसकी तरफ दृष्टि रखने से यह पुरुष जन्म-मरण में जाता है, तो अब प्रश्न होता है कि इस जन्म-मरण के चक्कर से छूटने के लिए उसको क्या करना चाहिए? इसका उत्तर भगवान आगे के श्लोक में देते हैं। |
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