श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
त्रयोदश अध्याय
ध्यानेनात्मनि पश्यन्ति केचिदात्मानमात्मना । अर्थ- कई मनुष्य ध्यानयोग के द्वारा, कई सांख्ययोग के द्वारा और कई कर्मयोग के द्वारा अपने-आपसे अपने-आपमें परमात्मतत्त्व का अनुभव करते हैं। व्याख्या- ‘ध्यानेनात्मनि पश्यन्ति केचिदात्मानमात्मना’- पाँचवें अध्याय के सत्ताईसवें-अट्ठाईसवें श्लोकों में; छठे अध्याय के दसवें से अट्ठाईसवें श्लोक तक; और आठवें अध्याय के आठवें से चौदहवें श्लोक तक जो सगुण-साकार, निर्गुण-निराकार आदि के ध्यान का वर्णन हुआ है, उस ध्यान में जिसकी जैसी रुचि, श्रद्धा-विश्वास और योग्यता है, उसके अनुसार ध्यान करके कई साधक अपने-आपसे अपने में परमात्मतत्त्व का अनुभव करते हैं। जो संबंध-विच्छेद प्रकृति और पुरुष को अलग-अलग जानने से होता है, वह संबंध-विच्छेद ध्यान से भी होता है। ध्यान न तो चित्त की मूढ़ वृत्ति में होता है और न क्षिप्त वृत्ति में होता है। ध्यान विक्षिप्त वृत्ति में आरंभ होता है। चित्त जब स्वरूप में एकाग्र हो जाता है, तब समाधि हो जाती है। एकाग्र होने पर चित्त निरुद्ध हो जाता है। इस तरह जिस अवस्था में चित्त निरुद्ध हो जाता है। उस अवस्था में चित्त संसार, शरीर, वृत्ति, चिन्तन आदि से भी उपरत हो जाती है। उस समय ध्यानयोगी अपने-आपसे अपने-आपमें अपना अनुभव करके संतुष्ट हो जाता है।[1] ‘अन्ये सांख्येन योगेन’- दूसरे अध्याय के ग्यारहवें से तीसवें श्लोक तक; चौथे अध्याय के तैंतीसवें से उन्तालीसवें श्लोक तक; पाँचवें अध्याय के आठवें, नवें तथा तेरहवें से छब्बीसवें श्लोक तक; और बारहवें अध्याय के चौथे पाँचवें आदि श्लोकों में कहे हुए सांख्ययोग के द्वारा कई साधक अपने-आपसे अपने में परमात्मतत्त्व का अनुभव करते हैं। सांख्ययोग नाम है विवेक का। उस विवेक के द्वारा सत्-असत् का निर्णय हो जाता है कि ‘सत्’ नित्य है, सर्वव्यापक है, स्थिर स्वभाव वाला है, अचल है, अव्यक्त है, अचिन्त्य है; ‘असत्’ चल है, अनित्य है, विकारी है, परिवर्तनशील है। ऐसे विवेक-विचार से सांख्ययोगी प्रकृति और उसके कार्य से बिलकुल अलग हो जाता है और अपने-आपसे अपने आपमें परमात्मा का अनुभव कर लेता है। ‘कर्मयोगेन चापरे’- दूसरे अध्याय के सैंतालीसवें से तिरपनवें श्लोक तक; तीसरे अध्याय के सातवें से उन्नीसवें श्लोक तक; चौथे अध्याय के सोलहवें से बत्तीसवें श्लोक तक; पाँचवें अध्याय के छठे-सातवें आदि श्लोकों में कहे हुए कर्मयोग के द्वारा कई साधक अपने-आपसे अपने में परमात्मतत्त्व का अनुभव करते हैं। जो संबंध-विच्छेद प्रकृति और पुरुष को अलग-अलग जानने से होता है, वह संबंध-विच्छेद कर्मयोग से भी होता है। कर्मयोगी जो कुछ भी करे, वह केवल संसार के हित के लिए ही करे। यज्ञ, दान, तप, तीर्थ, व्रत आदि जो कुछ भी करे, वह सब मात्र प्राणियों के कल्याण के लिए ही करे, अपने लिए नहीं। ऐसा करने से स्वयं का उन क्रियाओं से, पदार्थ, शरीर आदि से संबंध-विच्छेद हो जाता है और अपने-आपसे अपने में परमात्मतत्त्व का अनुभव हो जाता है। मनुष्य ने स्वाभाविक ही अपने में देह को स्वीकार किया है, माना है। इस मान्यता को दूर करने के लिए अपने में परमात्मा को देखना अर्थात देह की जगह अपने में परमात्मा को मानना बहुत आवश्यक है। अपने में परमात्मा को देखना करण निरपेक्ष होता है। करण सापेक्ष ज्ञान प्रकृति के संबंध से होता है। इसलिए साधक किसी करण के द्वारा परमात्मा में स्थित नहीं होता, प्रत्युत स्वयं ही स्थित होता है। स्वयं की परमात्मा में स्थिति किसी करण के द्वारा हो ही नहीं सकती। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ गीता 6।19-20
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