श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
त्रयोदश अध्याय
इसी अध्याय के दूसरे श्लोक में क्षेत्रज्ञ की परमात्मा के साथ एकता जानने के लिए ‘विद्धि’ पद का प्रयोग किया था और यहाँ पुरुष की प्रकृति से भिन्नता जानने के लिए ‘विद्धि’ पद का प्रयोग किया गया है। तात्पर्य है कि मनुष्य स्वयं को और शरीर को एक समझता है, इसलिए भगवान यहाँ ‘विद्धि’ पद से अर्जुन को यह आज्ञा देते हैं कि ये दोनों सर्वथा अलग-अलग हैं- इस बात को तुम ठीक तरह से समझ लो। ‘विकारांश्च गुणांश्चैव विद्धि प्रकृतिसम्भवान्’- इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख, संघात, चेतना और धृति- इन सात विकारों को तथा सत्त्व, रज और तम- इन तीन गुणों को प्रकृति से उत्पन्न हुए समझो। इसका तात्पर्य यह है कि पुरुष में विकार और गुण नहीं है। सातवें अध्याय में तो भगवान ने गुणों को अपने से उत्पन्न बताया है[1] और यहाँ गुणों को प्रकृति से उत्पन्न बताते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि वहाँ भक्ति का प्रकरण होने से भगवान ने गुणों को अपने से उत्पन्न बताया है और गुणमयी माया से तरने के लिए अपनी शरणागति बतायी है। परंतु यहाँ ज्ञान का प्रकरण होने से गुणों को प्रकृति से उत्पन्न बताया है। अतः साधक गुणों से अपना संबंध न मानकर ही गुणों से छूट सकता है। ‘कार्यकरणकर्तृत्वे हेतुः प्रकृतिरुच्यते’- आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी तथा शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध- इन दस- (महाभूतों और विषयों) का नाम ‘कार्य’ है। श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, रसना, घ्राण, वाणी, हस्त, पाद, उपस्थ और गुदा तथा मन, बुद्धि और अहंकार- इन तेरह (बहिःकरण और अंतःकरण) का नाम ‘करण’ है। इन सबके द्वारा जो कुछ क्रियाएँ होती हैं, उनको उत्पन्न करने में प्रकृति ही सेतु है। जो उत्पन्न होता है, वह ‘कार्य’ कहलाता है और जिसके द्वारा कार्य की सिद्धि होती है, वह ‘करण’ कहलाता है अर्थात क्रिया करने के जितने औजार (साधन) हैं, वे सब ‘करण’ कहलाते हैं। करण तीन तरह के होते हैं- (1) कर्मेंद्रियाँ, (2) ज्ञानेन्द्रियाँ और (3) मन, बुद्धि एवं अहंकार। कर्मेंद्रियाँ स्थूल हैं, ज्ञानेंद्रियाँ सूक्ष्म हैं और मन, बुद्धि एवं अहंकार अत्यंत सूक्ष्म हैं। कर्मेंद्रियों और ज्ञानेंद्रियों को ‘बहिःकरण’ कहते हैं तथा मन, बुद्धि और अहंकार को ‘अंतःकरण’ कहते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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