श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
त्रयोदश अध्याय
‘तमसः परमुच्यते’- वह परमात्मा अज्ञान से अत्यंत परे अर्थात सर्वथा असम्बद्ध और निर्लिप्त है। इंद्रियाँ, मन, बुद्धि और अहम्- इनमें तो ज्ञान और अज्ञान दोनों आते-जाते हैं; परंतु जो सबका परम प्रकाशक है, उस परमात्मा में अज्ञान कभी आता ही नहीं, आ सकता ही नहीं और आना संभव ही नहीं। जैसे सूर्य में अंधेरा कभी आता ही नहीं, ऐसे ही उस परमात्मा में अज्ञान कभी आता ही नहीं। अतः उस परमात्मा को अज्ञान से अत्यंत परे कहा गया है। ‘ज्ञानं ज्ञेयं ज्ञानगम्यम्’- उस परमात्मा में कभी अज्ञान नहीं आता। वह स्वयं ज्ञानस्वरूप है और उसी से सबको प्रकाश मिलता है। अतः उस परमात्मा को ‘ज्ञान’ अर्थात ज्ञानस्वरूप कहा गया है। इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि के द्वारा भी (जानने में आने वाले) विषयों का ज्ञान होता है, पर वे अवश्य जानने योग्य नहीं है; क्योंकि उनको जान लेने पर भी जानना बाकी रह जाता है, जानना परा नहीं होता। वास्तव में अवश्य जानने योग्य तो एक परमात्मा ही है- ‘अवसि देखिअहिं देखन जोगू।।’।[2] उस परमात्मा को जान लेने के बाद और कुछ जानना बाकी नहीं रहता। पंद्रहवें अध्याय में भगवान ने अपने लिए कहा है कि ‘संपूर्ण वेदों के द्वारा जानने योग्य मैं ही हूँ’;[3] ‘जो मुझे जान लेता है, वह सर्ववित् हो जाता है’।[4] अतः परमात्मा को ‘ज्ञेय’ कहा गया है। इसी अध्याय के सातवें ग्यारहवें श्लोक तक जिन ‘अमानित्वम्’ आदि साधनों का ‘ज्ञान’ के नाम से वर्णन किया गया है, उस ज्ञान के द्वारा असत् का त्याग होने पर परमात्मा को तत्त्व से जाना जा सकता है। अतः उस परमात्मा को ‘ज्ञानगम्य’ कहा गया है। ‘हृदि सर्वस्य विषिठ्तम्’- वह परमात्मा सबके हृदय में नित्य-निरंतर विराजमान है। तात्पर्य है कि यद्यपि वह परमात्मा सब देश, काल, वस्तु, व्यक्ति, घटना, परिस्थिति, अवस्था आदि में परिपूर्ण रूप से व्यापक है, तथापि उसका प्राप्ति स्थान तो हृदय ही है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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