श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
त्रयोदश अध्याय
अविभक्तं च भूतेषु विभक्तमिव च स्थितम् । अर्थ- वे परमात्मा स्वयं विभागरहित होते हुए संपूर्ण प्राणियों में विभक्त की तरह स्थित हैं। वे जानने योग्य परमात्मा ही संपूर्ण प्राणियों को उत्पन्न करने वाले, उनका भरण-पोषण करने वाले और संहार करने वाले हैं। व्याख्या- ‘अविभक्तं च भूतेषु विभक्तमिव च स्थितम्’- इस त्रिलोकी में देखने, सुनने और समझने में जितने भी स्थावर-जंगम प्राणी आते हैं, न सबमें परमात्मा स्वयं भागरहित होते हुए भी विभक्त की तरह प्रतीत होते हैं। विभाग केवल प्रतीति है। जिस प्रकार आकाश घट, मठ आदि की उपाधि से घटाकाश, मठाकाश आदि के रूप में अलग-अलग दीखते हुए भी तत्त्व से एक ही है, उसी प्रकार परमात्मा भिन्न-भिन्न प्राणियों के शरीरों की उपाधि से अलग-अलग दीखते हुए भी तत्त्व से एक ही हैं। इसी अध्याय के सत्ताइसवें श्लोक में ‘समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरम्’ पदों से परमात्मा को संपूर्ण प्राणियों में समभाव से स्थित देखने के लिए कहा गया है। इसी तरह अठारहवें अध्याय के बीसवें श्लोक में ‘अविभक्तं विभक्तेषु’ पदों से सात्त्विक ज्ञान का वर्णन करते हुए भी परमात्मा को अविभक्तरूप से देखने को ही ‘सात्त्विक ज्ञान’ कहा गया है। ‘भूतभूर्तृ च तज्ज्ञेयं ग्रसिष्णु प्रभविष्णु च’- इसी अध्याय के दूसरे श्लोक में ‘विद्धि’ पद से जिस परमात्मा को जानने की बात कही गयी है और बारहवें श्लोक में जिस ‘ज्ञेय’ तत्त्व का वर्णन करने की प्रतिज्ञा की गयी है, उसी का यहाँ ब्रह्मा, विष्णु और शिव के रूप से वर्णन हुआ है। वस्तुतः चेतन तत्त्व (परमात्मा) एक ही है। वे ही परमात्मा रजोगुण की प्रधानता स्वीकार करने से ब्रह्मरूप से सबको उत्पन्न करने वाले; सत्त्वगुण की प्रधानता स्वीकार करने से विष्णुरूप से सबका भरण-पोषण करने वाले और तमोगुण की प्रधानता स्वीकार करने से रुद्ररूप से सबका संहार करने वाले हैं। तात्पर्य है कि एक ही परमात्मा सृष्टि, पालन और संहार करने के कारण ब्रह्मा, विष्णु और शिव नाम धारण करते हैं।[1] यहाँ यह समझ लेना आवश्यक है कि परमात्मा सृष्टि रचनादि कार्यों के लिए भिन्न-भिन्न गुणों को स्वीकार करने पर भी उन गुणों के वशीभूत नहीं होते। गुणों पर उनका पूर्ण आधिपत्य रहता है। संबंध- पूर्वश्लोक में भगवान ने ज्ञेय तत्त्व का आधार रूप से वर्णन किया, अब आगे के श्लोक में उसका प्रकाशक रूप से वर्णन करते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ सृष्टिस्थित्यन्तकरणाद् ब्रह्माविष्णुशिवात्मकः। स संज्ञां याति भगवानेक एव जनार्दनः ।। (पद्यपुराण, सृ. 2।114)
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