श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
त्रयोदश अध्याय
बहिरन्तश्च भूतानामचरं चरमेव च । अर्थ- वे परमात्मा संपूर्ण प्राणियों के बाहर-भीतर परिपूर्ण हैं और चर-अचर प्राणियों के रूप में भी वे ही हैं एवं दूर-से-दूर तथा नजदीक-से-नजदीक भी वे ही हैं। वे अत्यंत सूक्ष्म होने से जानने का विषय नहीं है। व्याख्या- [ज्ञेय तत्त्व का वर्णन बारहवें से सत्रहवें श्लोक तक- कुल छः श्लोकों में हुआ है। उनमें से यह पंद्रहवाँ श्लोक चौथा है। इस श्लोक के अंतर्गत पहले के तीन श्लोकों का और आगे के दो श्लोकों का भाव भी आ गया है। अतः यह श्लोक इस प्रकरण का सार है।] ‘बहिरन्तश्च भूतानामचरं चरमेव च’- जैसे बर्फ के बने हुए घड़ों को समुद्र में डाल दिया जाए तो उन घड़ों के बाहर भी जल है, भीतर भी जल है और वे खुद भी (बर्फ के बने होने से) जल ही है। ऐसे ही संपूर्ण चर-अचर प्राणियों के बाहर भी परमात्मा है, भीतर भी परमात्मा है और वे खुद भी परमात्मस्वरूप ही हैं। तात्पर्य यह हुआ कि जैसे घड़ों में जल के सिवाय दूसरा कुछ नहीं है। अर्थात सब कुछ जल-ही-जल है, ऐसे ही संसार में परमात्मा के सिवाय दूसरा कोई तत्त्व नहीं है अर्थात सब कुछ परमात्मा-ही-परमात्मा है। इसी बात को भगवान ने महात्माओं की दृष्टि से ‘वासुदेवः सर्वम्’[1] और अपनी दृष्टि से ‘सदसच्चाहम्’[2] कहा है। ‘दूरस्थं चान्तिके च तत्’- किसी वस्तु का दूर और नजदीक होना तीन दृष्टियों से कहा जाता है- देशकृत, कालकृत और वस्तुकृत। परमात्मा तीनों ही दृष्टियों से दूर-से-दूर और नजदीक-से-नजदीक है; जैसे- दूर-से-दूर देश में भी वे ही परमात्मा हैं और नजदीक-से-नजदीक देश में भी वे ही परमात्मा है;[3] पहले से पहले भी वे ही परमात्मा थे, पीछे से पीछे भी वे ही परमात्मा रहेंगे और अब भी वे ही परमात्मा हैं; संपूर्ण वस्तुओं के पहले भी वे ही परमात्मा हैं, वस्तुओं के अंत में भी वे ही परमात्मा हैं और वस्तुओं के रूप में भी वे ही परमात्मा हैं। उत्पत्ति-विनाशशील पदार्थों के संग्रह और सुख-भोग की इच्छा करने वाले के लिए परमात्मा (तत्त्वतः समीप होने पर भी) दूर हैं। परंतु जो केवल परमात्मा के ही सम्मुख हैं, उसके लिए परमात्मा नजदीक हैं। इसलिए साधन को सांसारिक भोग और संग्रह की इच्छा का त्याग करके केवल परमात्मप्राप्ति की अभिलाषा जाग्रत करनी चाहिए। परमात्मप्राप्ति की उत्कट अभिलाषा होते ही परमात्मा की प्राप्ति हो जाती है अर्थात परमात्मा से नित्ययोग का अनुभव हो जाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ गीता 7:19
- ↑ गीता 9:19
- ↑ पृथ्वी से दूर जल है, जल से दूर तेज है, तेज से दूर वायु है, वायु से दूर आकाश है, आकाश से दूर महत्त्व है, महत्त्व से दूर प्रकृति है और प्रकृति से दूर परमात्मा है। इस तरह दूर-से-दूर परमात्मा हैं। दूर-से-दूर होते हुए भी वे परमात्मा व्यापक रूप से सबमें हैं; क्योंकि परमात्मा सबके कारण हैं और कारण सब कार्यों में रहता है। प्रकृति से नजदीक स्थूल शरीर है, स्थूल शरीर से नजदीक सूक्ष्मशरीर है, सूक्ष्मशरीर से नजदीक कारणशरीर है, कारणशरीर से नजदीक अहम् है और अहम् से नजदीक परमात्मा है। इस तरह नजदीक-से-नजदीक परमात्मा हैं। परमात्मा जितने नजदीक हैं, उतना नजदीक दूसरा कोई भी नहीं हैं।
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