श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
त्रयोदश अध्याय
सर्वतःपाणिपादं तत्सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम् । अर्थ- वे (परमात्मा) सब जगह हाथों और पैरों वाले, सब जगह नेत्रों, सिरों और मुखों वाले तथा सब जगह कानों वाले हैं। वे संसार में सबको व्याप्त करके स्थित हैं। व्याख्या- ‘सर्वतः पाणिपादं तत्’- जैसे स्याही में सब जगह सब तरह की लिपियाँ विद्यमान हैं; अतः लेखक स्याही से सब तरह की लिपियाँ लिख सकता है। सोने में सब जगह सब तरह के गहने विद्यमान हैं; अतः सुनार सोने में किसी भी जगह से गहना बनाना चाहे, बना सकता है। ऐसे ही भगवान के सब जगह ही हाथ और पैर हैं; अतः भक्त भक्ति से जहाँ-कहीं जो कुछ भी भगवान के हाथों में देना चाहता है, अर्पण करना चाहता है, उसको ग्रहण करने के लिए उसी जगह भगवान के हाथ मौजूद हैं। भक्त बाहर से अर्पण करना चाहे अथवा मन से, पूर्व में देना चाहे अथवा पश्चिम में, उत्तर में देना चाहे अथवा दक्षिण में, उसे ग्रहण करने के लिए वहीं भगवान के हाथ मौजूद हैं। ऐसे ही भक्त जल में, स्थल में अग्नि में, जहाँ-कहीं जिस किसी भी संकट में पड़ने पर भगवान को पुकारता है, उसकी रक्षा करने के लिए वहाँ ही भगवान के हाथ तैयार हैं अर्थात भगवान वहाँ ही अपने हाथों से उसकी रक्षा करते हैं। भक्त जहाँ-कहीं भगवान के चरणों में चंदन लगाना चाहता है, पुष्प चढ़ाना चाहता है, नमस्कार करना चाहता है, उसी जगह भगवान के चरण मौजूद हैं। हजारों लाखों भक्त एक ही समय में भगवान के चरणों की अलग-अलग पूजा करना चाहें, तो उनके भाव के अनुसार वहाँ ही भगवान के चरण मौजूद हैं। ‘सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम्’- भक्त भगवान को जहाँ दीपक दिखाता है, आरती करता है, वहाँ ही भगवान के नेत्र हैं। भक्त जहाँ शरीर से अथवा मन से नृत्य करता है, वहाँ ही भगवान उसके नृत्य को देख लेते हैं। तात्पर्य है कि जो भगवान को सब जगह देखता है, भगवान भी उसकी दृष्टि से कभी ओझल नहीं होते।[1] भक्त जहाँ भगवान के मस्तक पर चन्दन लगाना चाहे, पुष्प चढ़ाना चाहे, वहाँ ही भगवान का मस्तक है। भक्त जहाँ भगवान को भोग लगाना चाहे, वहाँ ही भगवान का मुख है अर्थात भक्त द्वारा भक्तिपूर्व दिए हुए पदार्थ को भगवान वहाँ ही खा लेते हैं।[2] ‘सर्वतःश्रुतिमत्’- भक्त जहाँ- कहीं जोर से बोलकर प्रार्थना करे, धीरे से बोलकर प्रार्थाना करे अथवा मन से प्रार्थना करे वहाँ ही भगवान अपने कानों से सुन लेते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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