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श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
त्रयोदश अध्याय
शंका- भगवान ने ज्ञान के साधनों में अपनी भक्ति को किसलिए बताया? क्या ज्ञानयोग का साधक भगवान की भक्ति भी करता है?
समाधान- ज्ञानयोग के साधक (जिज्ञासु) दो प्रकार के होते हैं- भावप्रधान (भक्तिप्रधान) और विवेक प्रधान (ज्ञानप्रधान)।
- भावप्रधान जिज्ञासु वह है, जो भगवान का आश्रय लेकर तत्त्व को जानना चाहता है।[1] इसी अध्याय के दूसरे श्लोक में ‘माम्’, ‘मम’, तीसरे श्लोक में ‘मे’, इस (दसवें) श्लोक में ‘मयि’ और अठारहवें श्लोक में ‘मद्भक्तः’ तथा ‘मद्भावाय’ पदों के आने से सिद्ध होता है कि अठारहवें श्लोक तक भावप्रधान जिज्ञासु का प्रकरण है। परंतु उन्नीसवें से चौंतीसवें श्लोक तक एक बार भी ‘अस्मद्’ (‘मैं’ वाचक) पद का प्रयोग नहीं हुआ है, इसलिए वहाँ विवेक प्रधान जिज्ञासु का प्रकरण है। अतः यहाँ भावप्रधान जिज्ञासु का प्रसंग होने से ज्ञान के साधनों के अंतर्गत भक्तिरूप साधन का वर्णन किया गया है। दूसरी बात, जैसे सात्त्विक भोजन में पुष्टि के लिए घी या दूध की आवश्यकता होती है, तो वहाँ घी और दूध सात्त्विक भोजन के साथ मिलकर भी पुष्टि करते हैं और अकेले-अकेले भी पुष्टि करते हैं। ऐसे ही भगवान की भक्ति ज्ञान के साधनों में मिलकर भी परमात्मप्राप्ति में सहायक होती है और अकेली भी गुणातीत बना देती है।[2] पातंजलयोगदर्शन में भी परमात्मप्राप्ति के लिए अष्टांगयोग के साधनों में सहायक रूप से ‘ईश्वरप्रणिधान’ अर्थात भक्ति रूप नियम कहा है[3] और उसी भक्ति को स्वतंत्र रूप से भी कहा है।[4] इससे सिद्ध होता है कि भक्तिरूप साधन अपनी एक अलग विशेषता रखता है। इस विशेषता के कारण भी ज्ञान के साधनों में भक्ति का वर्णन किया गया है।
- विवेक प्रधान जिज्ञासु वह है, जो सत्-असत् का विचार करते हुए तीव्र विवेक-वैराग्य से युक्त होकर तत्त्व को जानना चाहता है।[5] विचार करके देखा जाए तो आजकल आध्यात्मिक जिज्ञासा की कमी और भोगसक्ति की बहुलता के कारण विवेक प्रधान जिज्ञासु बहुत कम देखने में आते हैं। ऐसे साधकों के लिए भक्ति रूप साधन बहुत उपयोगी हैं। अतः यहाँ भक्ति का वर्णन करना युक्तिसंगत प्रतीत होता है।
उपाय- केवल भगवान को ही अपना मानना और भगवान का ही आश्रय लेकर श्रद्धा-विश्वासपूर्वक भगवन्नाम का जप, कीर्तन, चिन्तन, स्मरण आदि करना ही भक्ति का सुगम उपाय है।
‘विवेक्तदेशसेवित्वम्’- ‘मैं एकान्त में रहकर परमात्मतत्त्व का चिन्तन करूँ, भजन-स्मरण करूँ, सत्-शास्त्रों का स्वाध्याय करूँ, उस तत्त्व को गहरा उतरकर समझूँ, मेरी वृत्तियों में और मेरे साधन में कोई भी विघ्न-बाधा न पड़े, मेरे साथ कोई न रहे और मैं किसी के साथ न रहूँ’- साधक की ऐसी स्वाभाविक अभिलाषा का नाम ‘विविक्तदेशसेवित्व’ है।
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