श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
त्रयोदश अध्याय
मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी । अर्थ- मेरे में अनन्ययोग के द्वारा अव्यभिचारिणी भक्ति का होना, एकान्त स्थान में रहने का स्वभाव होना और जन-समुदाय में प्रीति का न होना। व्याख्या- ‘मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी’- संसार का आश्रय लेने के कारण साधक का देहाभिमान बना रहता है। यह देहाभिमान अव्यक्त के ज्ञान में प्रधान बाधा है। इसको दूर करने के लिए भगवान यहाँ तत्त्वज्ञान का उद्देश्य रखकर अनन्योग द्वारा अपनी अव्यभिचारिणी भक्ति करने का साधन बता रहे हैं। तात्पर्य है कि भक्ति का रूप साधन से ही देहाभिमान सुगमतापूर्वक दूर हो सकता है। भगवान के सिवाय और किसी से कुछ भी पाने की इच्छा न हो अर्थात भगवान के सिवाय मनुष्य, गुरु, देवता, शास्त्र आदि मेरे को उस तत्त्व का अनुभव करा सकते हैं तथा अपने बल, बुद्धि, योग्यता से मैं उस तत्त्व को प्राप्त कर लूँगा- इस प्रकार किसी भी वस्तु, व्यक्ति आदि सहारा न हो; और ‘भगवान की कृपा से ही मेरे को उस तत्त्व का अनुभव होगा’- इस प्रकार केवल भगवान में ‘अव्यभिचारिणी भक्ति’ होना है। तात्पर्य है कि तत्त्वप्राप्ति का साधन (उपाय) भी भगवान ही हों और साध्य (उपेय) भी भगवान ही हों- यही अनन्ययोग के द्वारा भगवान में अव्यभिचारिणी भक्ति का होना है। जिस साधक में ज्ञान के साथ-साथ भक्ति के भी संस्कार हों, उसके लिए यह साधन बहुत उपयोगी है। भक्ति परायण साधक अगर तत्त्वज्ञान का उद्देश्य रखकर एकमात्र भगवान का ही आश्रय ग्रहण करता है, तो केवल इसी साधन से तत्त्वज्ञान की प्राप्ति कर सकता है। गुणातीत होने के उपायों में भी भगवान ने अव्यभिचारणी भक्ति की बात कही है।[1] शंका- यहाँ तो भक्ति से तत्त्वज्ञान की प्राप्ति बतायी गयी है और अठारहवें अध्याय के चौवनवें-पचपनवें श्लोकों में ज्ञान से भक्ति की प्राप्ति कही गयी है, ऐसा क्यों? समाधान- जैसे भक्ति दो प्रकार की होती है- साधन-भक्ति और साध्य-भक्ति, ऐसे ही ज्ञान भी दो प्रकार का होता है- साधन-ज्ञान और साध्य-ज्ञान। साध्य-भक्ति और साध्य-ज्ञान- दोनों तत्त्वतः एक ही हैं। साधन-भक्ति और साधन-ज्ञान- ये दोनों साध्य-भक्ति अथवा साध्य-ज्ञान की प्राप्ति के साधन हैं। अतः यहाँ भक्ति से तत्त्वज्ञान (साध्य-ज्ञान) की प्राप्ति की बात कही है, वह भी ठीक है और जहाँ ज्ञान से पराभक्ति (साध्य-भक्ति) की प्राप्ति की बात कही है, वह भी ठीक है। अतः साधक को चाहिए कि उसमें कर्म, ज्ञान अथवा भक्ति- जिस संस्कार की प्रधानता हो, उसी के अनुरूप साधन में लग जाए। सावधानी केवल इतनी रखे कि उद्देश्य केवल परमात्मा का ही हो, प्रकृति अथवा उसके कार्य का नहीं। ऐसा उद्देश्य होने पर वह उसी साधन से परमात्मा को प्राप्त कर लेता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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