श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
त्रयोदश अध्याय
असक्तिरनभिष्वगः पुत्रदारगृहादिषु । अर्थ- आसक्तिरहित होना; पुत्र, स्त्री, घर आदि में एकात्मा (घनिष्ठ संबंध) न होना और अनुकूलता-प्रतिकूलता की प्राप्ति में चित्त का नित्य सम रहना। व्याख्या- ‘आसक्तिः’- उत्पन्न होने वाली (सांसारिक) वस्तु, व्यक्ति, घटना, परिस्थिति आदि में जो प्रियता है, उसको ‘सक्ति’ कहते हैं। उस ‘सक्ति’ से रहित होने का नाम ‘असक्ति’ है। सांसारिक वस्तुओं, व्यक्तियों आदि से सुख लेने की इच्छा से, सुख की आशा से और सुख के भोग से ही मनुष्य की उनमें आसक्ति, प्रियता होती है। कारण कि मनुष्य को संयोग के सिवाय सुख नहीं दिखता, इसलिए उसको संयोगजन्य सुख प्रिय लगता है। परंतु वास्तविक सुख संयोग के वियोग से होता है,[1] इसलिए साधक के लिए सांसारिक आसक्ति का त्याग करना बहुत आवश्यक है। उपाय- संयोगजन्य सुख आरंभ में तो अमृत की तरह दीखता है, पर परिणाम में विषय की तरह होता है।[2] संयोगजन्य सुख भोगने वाले को परिणाम में दुःख भोगना ही पड़ता है- यह नियम है। अतः संयोगजन्य सुख के परिणाम पर दृष्टि रखने से उसमें आसक्ति नहीं रहती। ‘अनभिष्वंगः पुत्रदारगृहादिषु’- पुत्र, स्त्री, घर, धन, जमीन, पशु आदि के साथ माना हुआ जो घनिष्ठ संबंध है, गाढ़ मोह है, तादात्म्य है, मानी हुई एकात्मता है, जिसके कारण शरीर पर भी असर पड़ता है, उसका नाम ‘अभिष्वंग’ है।[3] जैसे- पुत्र के साथ माता की एकात्मता के रहने के कारण जब पुत्र बीमार हो जाता है, तब माता का शरीर कमज़ोर हो जाता है। ऐसे ही पुत्र के, स्त्री के मर जाने पर मनुष्य कहता है कि मैं मर गया, धन के चले जाने पर कहता है कि मैं मारा गया, आदि। ऐसी एकात्मता से रहित होने के लिए यहाँ ‘अनभिष्वंगः’ पद आया है। उपाय- जिनके साथ अपना घनिष्ठ संबंध दीखे, उनकी सेवा करे, उनको सुख पहुँचाये, पर उनसे सुख लेने का उद्देश्य न रखे। उद्देश्य तो उनसे अभिष्वंग (तादात्म्य) दूर करने का ही रखे। अगर उनसे सेवा लेने का उद्देश्य रखेंगे तो उनसे तादात्म्य हो जाएगा। हाँ, उनकी प्रसन्नता के लिए कभी उनसे सेवा लेनी भी पड़े तो उसमें राजी न हो; क्योंकि राजी होने से अभिष्वंग हो जाएगा। तात्पर्य है कि किसी के भी साथ अपने को लिप्त न करे। इस बात को बहुत सावधानी रखे।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ गीता 6:23
- ↑ गीता 18:38
- ↑ पुत्र, स्त्री आदि के साथ यथायोग्य बर्ताव करना, उनमें अपनापन न रखकर उनकी सेवा करना ‘अभिष्वंग’ नहीं है, प्रत्युत यह तो निर्लिप्तता, असंगता है, जो कि अमरता का अनुभव कराने वाली है।
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