श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
त्रयोदश अध्याय
इन्द्रियार्थेषु वैराग्यमनहंकार एव च । अर्थ- इंद्रियों के विषयों में वैराग्य का होना, अहंकार का भी न होना और जन्म, मृत्यु, वृद्धावस्था तथा व्याधियों में दुःख रुप दोषों को बार-बार देखना। व्याख्या- ‘इन्द्रियार्थेषु वैराग्यम्’- लोक-परलोक के शब्दादि समस्त विषयों में इंद्रियों का खिंचाव न होना ही इंद्रियों के विषयों में रागरहित होना है। इंद्रियों का विषयों के साथ संबंध होने पर भी तथा शास्त्र के अनुसार जीवन निर्वाह के लिए इंद्रियों द्वारा विषयों का सेवन करते हुए भी साधक को विषयों में राग, आसक्ति, प्रियता नहीं होनी चाहिए। उपाय- (1) विषयों में राग होने से विषयों की महत्ता दीखती है, संसार में आकर्षण होता है और इसी से सब पाप होते हैं। अगर हमारा विषयों में राग रहेगा तो तत्त्वबोध कैसे होगा? परमात्मतत्त्व में हमारी स्थिति कैसे होगी? अगर राग का त्याग कर दें तो परमात्मा में स्थिति हो जाएगी- ऐसा विचार करने से विषयों से वैराग्य हो जाता है। (2) बड़े-बड़े धनी, शूरवीर, राजा-महाराजा हुए और उन्होंने बहुत से भोगों को भोगा, पर अंत में उनका क्या रहा? कुछ नहीं रहा। उनके शरीर कमज़ोर हो गए और अंत में सब चले गए। इस प्रकार विचार करने से भी वैराग्य हो जाता है। (3) जिन्होंने भोग नहीं भोगे हैं, जिनके पास भोग सामग्री नहीं है, जो संसार से विरक्त हैं, उनकी अपेक्षा जिन्होंने बहुत भोग भोगे हैं और भोग रहे हैं, उनमें क्या विलक्षणता, विशेषता आयी? कुछ नहीं, प्रत्युत भोग भोगने वाले तो शोक-चिन्ता में डूबे हुए हैं। ऐसा विचार करने से भी वैराग्य होता है। ‘अनहंकार एव च’- प्रत्येक व्यक्ति के अनुभव में ‘मैं हूँ’- इस प्रकार की एक वृत्ति होती है। यह वृत्ति ही शरीर के साथ मिलकर ‘मैं शरीर हूँ’- इस प्रकार एकदेशीयता अर्थात अहंकार उत्पन्न कर देती है। इसी के कारण शरीर, नाम, क्रिया, पदार्थ, भाव, ज्ञान, त्याग, देश, काल आदि के साथ अपना संबंध मानकर जीव ऊँच-नीच योनियों में जन्मता-मरता रहता है।[1] यह अहंकार साधन में प्रायः बहुत दूर तक रहता है। वास्तव में इसकी सत्ता नहीं है फिर भी स्वयं मान्यता होने के कारण व्यक्ति के रूप में इसका भान होता रहता है। भगवान द्वारा ज्ञान के साधनों में इस पद का प्रयोग किए जाने का तात्पर्य शरीरादि में माने हुए अहंकार का सर्वथा अभाव करने में है; क्योंकि जड-चेतन का यथार्थ बोध होने पर इसका सर्वथा अभाव हो जाता है। मनुष्यमात्र अहंकार रहित हो सकता है, इसीलिए भगवान यहाँ ‘अनहंकारः’ पद से अहंकार का त्याग करने की बात कहते है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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