श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
त्रयोदश अध्याय
उपाय- (1) सांसारिक भोग और संग्रह में आसक्त पुरुषों की बुद्धि एक निश्चय दृढ़ नहीं रहती।[1] अतः साधक को भोग और संग्रह की आसक्ति का त्याग कर देना चाहिए। (2) साधक अगर किसी छोटे-से-छोटे कार्य का भी विचार कर ले तो उस विचार की हिंसा न करे अर्थात उस पर दृढ़ता से स्थिर रहे। ऐसा करने से उसका स्थिर रहने का स्वभाव बन जाएगा। (3) साधक का संतों और शास्त्रों के वचनों पर जितना अधिक विश्वास होगा, उतनी ही उसमें स्थिरता आयेगी। ‘आत्मविनिग्रहः’- यहाँ आत्मा नाम मन का है, और उसको वश में करना ही ‘आत्मविनिग्रह’ है। मन में दो तरह की चीजें पैदा होती हैं- स्फुरणा और संकल्प। स्फुरणा अनेक प्रकार की होती है और वह आती-जाती रहती हैं। पर जिस स्फुरणा में मन चिपक जाता है, जिसको मन पकड़ लेता है, वह ‘संकल्प’ बन जाती है। संकल्प में दो चीजें रहती हैं- राग और द्वेष। इन दोनों को लेकर मन में चिन्तन होता है। स्फुरणा तो दर्पण के दृश्य की तरह होती है। दर्पण में दृश्य दीखता तो है, पर कोई भी दृश्य चिपकता नहीं अर्थात दर्पण किसी भी दृश्य को पकड़ता नहीं। परंतु संकल्प कैमरे की फिल्म की तरह होता है, जो दृश्य को पकड़ लेता है। अभ्यास से अर्थात मन को बार-बार ध्येय में लगाने से स्फुरणाएँ नष्ट हो जाती हैं; और वैराग्य से अर्थात किसी वस्तु, व्यक्ति, पदार्थ आदि में राग, महत्त्व न रहने संकल्प नष्ट हो जाते हैं। इस प्रकार अभ्यास और वैराग्य से मन वश में हो जाता है।[2] उपाय- (मन को वश में करने के उपाय छठे अध्याय के छब्बीसवें श्लोक की व्याख्या में देखने चाहिए)। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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