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श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
त्रयोदश अध्याय
भगवान ने दैवी संपत्ति के लक्षणों में ‘आचार्योपासनम्’ पद से न देकर यहाँ ज्ञान के साधनों में उसे दिया है। इसमें एक विशेष रहस्य की बात मालूम देती है कि ज्ञानमार्ग में गुरु की जितनी आवश्यकता है उतनी आवश्यकता भक्तिमार्ग में नहीं है। कारण कि भक्तिमार्ग में साधक सर्वथा भगवान के आश्रित रहकर ही साधन करता है, इसलिए भगवान स्वयं उस पर कृपा करके उसके योगक्षेम का वहन करते हैं[1], उसकी कमियों को, विघ्न-बाधाओं को दूर कर देते हैं[2] और उसको तत्त्वज्ञान की प्राप्ति करा देते हैं।[3] परंतु ज्ञानमार्ग में साधक अपनी साधना के बल पर चलता है, इसलिए उसमें कुछ सूक्ष्म कमियाँ रह सकती हैं; जैसे-
- शास्त्रों एवं संतों के द्वारा ज्ञान प्राप्त करके जब साधक शरीर को (अपनी धारणा से) अपने से अलग मानता है, तब उसे शान्ति मिलती है। ऐसी दशा में वह यह मान लेता है कि मेरे को तत्त्वज्ञान प्राप्त हो गया। परंतु जब मान-अपमान की स्थिति सामने आती है अथवा अपनी इच्छा के अनुकूल या प्रतिकूल घटना घटती है, तब अंतःकरण में हर्ष-शोक पैदा हो जाते हैं, जिससे सिद्ध होता है कि अभी तत्त्वज्ञान हुआ नहीं।
- किसी आदमी के द्वारा अचानक अपना नाम सुनायी पड़ने पर अंतःकरण में ‘इस नाम वाला शरीर मैं हूँ’- ऐसा भाव उत्पन्न हो जाता है, तो समझना चाहिए कि अभी मेरी शरीर में ही स्थिति है।
- साधना की ऊँची स्थिति प्राप्त होने पर जाग्रत अवस्थाओं में तो साधक को जड-चेतन का विवेक अच्छी तरह रहता है, पर निद्रावस्था में उसकी विस्मृति हो जाती है। इसलिए नींद से जगने पर साधक उस विवेक को पकड़ता है, जबकि सिद्ध महापुरुष का विवेक स्वाभाविक रूप से रहता है।
- साधक में पूज्यजनों से भी मान-आदर पाने की इच्छा हो जाती है; जैसे- जब वह संतों या गुरुजनों की सेवा करता है, सत्संग आदि में मुख्यता से भाग लेता है, तब उसके भीतर ऐसा भाव पैदा होता है कि वे संत या गुरुजन मेरे को दूसरों की अपेक्षा श्रेष्ठ मानें। यह उसकी सूक्ष्म कमी ही है।
इस प्रकार साधक में कई कमियों के रहने की संभावना रहती है, जिनकी तरफ खयाल न रहने से वह अपने अधूरे ज्ञान को भी पूर्ण मान सकता है। इसलिए भगवान ‘आचार्योपासनम्’ पद से यह कह रहे हैं कि ज्ञानमार्ग के साधक को आचार्य के पास रहकर उनकी अधीनता में ही साधन करना चाहिए। चौथे अध्याय के चौंतीसवें श्लोक में भी भगवान ने अर्जुन से कहा है कि ‘तू तत्त्वज्ञ जीवन्मुक्त महापुरुषों के पास जा, उनको दण्डवत-प्रणाम कर, उनकी सेवा कर और अपनी जिज्ञासा-पूर्ति के लिए नम्रतापूर्वक प्रश्न कर तो वे तत्त्वदर्शी ज्ञानी महात्मा तेरे को ज्ञान का उपदेश देंगे।’
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