श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
त्रयोदश अध्याय
(2) जैसे भोजन करते समय अपने ही दाँतों से अपनी जीभ कट जाए तो हम दाँतों पर क्रोध नहीं करते, दाँतों को दण्ड नहीं देते। हाँ, जीभ ठीक हो जाए- यह बात तो मन में आती है पर दाँतों को तोड़ेंगे तो एक नयी पीड़ा और होगी अर्थात पीड़ा दुगुनी होगी, जिससे हमारे को ही दुःख होगा, हमारा ही अनिष्ट होगा। ऐसे ही बिना कारण कोई हमारा अपराध करता है, हमें दुःख देता है, उसको अगर हम दंड देंगे, दुःख देंगे तो वास्तव में हमारा ही अनिष्ट होगा; क्योंकि वह भी तो अपना ही स्वरूप है[1] ‘आर्जवम्’- सरल-सीधेपन के भाव को ‘आर्जव’ कहते हैं। साधक के शरीर, मन और वाणी में सरल-सीधापन होना चाहिए। शरीर की सजावट का भाव न होना, रहन-सहन में सादगी तथा चाल-ढाल में स्वाभाविक सीधापन होना, ऐंठ-अकड़ न होना- यह ‘शरीर की सरलता’ है। छल, कपट, ईर्ष्या, द्वेष आदि का न होना तथा निष्कपटता, सौम्यता, हितैषिता, दया आदि का होना- यह ‘मनकी सरलता’ है। व्यंग्य, निन्दा, चुगली आदि न करना, चुभने वाले एवं अपमानजनक वचन न बोलना तथा सरल, प्रिय और हितकारक वचन बोलना- यह ‘वाणी की सरलता’ है। उपाय- अपने को एक देश में मानने से अर्थात स्थूल, सूक्ष्म और कारण-शरीर के साथ संबंध रखने से अपने में दूसरों की अपेक्षा विशेषता दीखती है। इससे व्यवहार में भी चलते-फिरते, उठते-बैठते आदि क्रिया करते हुए कुछ टेढ़ापन, अकड़ आ जाती है। अतः शरीर के साथ अपना संबंध न मानने से और अपने स्वरूप की तरफ दृष्टि रखने से यह अकड़ मिट जाती है और साधक में स्वतः सरलता, नम्रता आ जाती है। ‘आचार्योपासनम्’- विद्या और सदुपदेश देने वाले गुरु का नाम भी आचार्य है और उनकी सेवा से भी लाभ होता है; परंतु यहाँ ‘आचार्य’ पद परमात्मतत्त्व को प्राप्त जीवन्मुक्त महापुरुष का ही वाचक है। आचार्य को दण्डवत् प्रणाम करना, उनका आदर-सत्कार करना और उनके शरीर को सुख पहुँचाने की शास्त्रविहित चेष्टा करना भी उनकी उपासना है, पर वास्तव में उनके सिद्धांतों और भावों के अनुसार अपना जीवन बनाना ही उनकी सच्ची उपासना है। कारण कि देहाभिमानी की सेवा तो उसके देह की सेवा करने से ही हो जाती है, पर गुणातीत महापुरुष के केवल देह की सेवा करना उनकी पूर्ण सेवा नहीं है। |
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