श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
त्रयोदश अध्याय
उपर्युक्त नौ प्रकार की हिंसा में तीन मात्राएँ होती हैं- मृदुमात्रा, मध्यमात्रा और अधिमात्रा। किसी को थोड़ा दुःख देना मृदुमात्रा में हिंसा है, मृदुमात्रा से अधिक दुःख देना मध्यमात्रा में हिंसा है और बहुत अधिक घायल कर देना अथवा खत्म कर देना अधिकमात्रा में हिंसा है। इस तरह मृदु, मध्य और अधिमात्रा के भेद से हिंसा सत्ताईस प्रकार की हो जाती है। उपर्युक्त सत्ताईस प्रकार की हिंसा तीन करणों से होती है- शरीर से, वाणी से और मन से। इस तरह हिंसा इक्यासी प्रकार की हो जाती है। इनमें से किसी भी प्रकार की हिंसा न करने का नाम ‘अहिंसा’ है। अहिंसा भी चार प्रकार की होती है- देशगत, कालगत, समयगत और व्यक्तिगत। अमुक तीर्थ में, अमुक मंदिर में, अमुक स्थान में किसी को दुःख नहीं देना है- यह ‘देशगत अहिंसा' है। अमावस्या, पूर्णिमा, व्यतिपात आदि पर्वों के दिन किसी को दुःख नहीं देना है- यह ‘कालगत अहिंसा’ है। सन्त के मिलने पर, पुत्र के जन्म-दिन पर, पिता के निधन-दिवस पर किसी को दुःख नहीं देना है- यह ‘समयगत अहिंसा’ है। गाय, हरिण आदि को तथा गुरुजन, माता-पिता, बालक आदि को दुःख नहीं देना है- यह ‘व्यक्तिगत’ अहिंसा है। किसी भी देश, काल आदि में क्रोध-लोभ-मोहपूर्वक किसी को भी शरीर, वाणी और मन से किसी भी प्रकार से दुःख न देने से यह सार्वभौम अहिंसा ‘महाव्रत’ कहलाती है। उपाय- जैसे साधारण प्राणी अपने शरीर का सुख चाहता है, ऐसे ही साधक को सबके सुख में अपना सुख, सबके हित में अपना हित और सबकी सेवा में अपनी सेवा माननी चाहिए अर्थात सबके सुख, हित और सेवा से अपना सुख, हित और सेवा अलग नहीं माननी चाहिए। 'सब अपने ही स्वरूप हैं'- ऐसा विवेक जाग्रत रहने से उसके द्वारा किसी को दुःख देने की क्रिया होगी ही नहीं और उसमें अहिंसाभाव स्वतः आ जाएगा। ‘क्षान्तिः’- क्षान्ति नाम सहनशीलता अर्थात क्षमा का है, अपने में सामर्थ्य होते हुए भी अपराध करने वाले को कभी किसी प्रकार से किञ्चिन्मात्र भी दण्ड न मिले- ऐसा भाव रखना तथा उससे बदला लेने अथवा किसी दूसरे के द्वारा दंड दिलवाने का भाव न रखना ही ‘क्षान्ति’ है। |
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