श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
त्रयोदश अध्याय
अमानित्वमदम्भित्वमहिंसा क्षान्तिरार्जवम् । मानित्व (अपने में श्रेष्ठता के भाव) का न होना, दम्भित्व (दिखावटीपन) का न होना, अहिंसा, क्षमा, सरलता, गुरु की सेवा, बाहर-भीतर की शुद्धि, स्थिरता और मन का वश में होना। व्याख्या- ‘अमानित्वम्’- अपने में मानीपन के अभाव का नाम ‘अमानित्व’ है। वर्ण, आश्रम, योग्यता, विद्या, गुण, पद आदि को लेकर अपने में श्रेष्ठता का भाव होता है कि ‘मैं मान्य हूँ, आदरणीय हूँ,’ परंतु यह भाव उत्पत्ति-विनाशशील शरीर के साथ तादात्म्य होने से होता है। अतः इसमें जडता की ही मुख्यता रहती है। इस मानीपन के रहने से साधक को वास्तविक ज्ञान नहीं होता। यह मानीपन साधक में जितना कम रहेगा, उतना ही जडता का महत्त्व कम होगा। जडता का महत्त्व जितना कम होगा, जडता को लेकर अपने में मानीपन का भाव भी उतना ही कम होगा, और साधक उतना ही चिन्मयता की तरफ तेजी से लगेगा। उपाय- जब साधक खुद बड़ा बन जाता है, तब उसमें मानीपन आ जाता है। अतः साधक को चाहिए कि जो श्रेष्ठ पुरुष हैं, साधन में अपने से बड़े हैं, तत्त्वज्ञ (जीवन्मुक्त) हैं, उनका संग करे, उनके पास में रहे, उनके अनुकूल बन जाय। इससे मानीपन दूर हो जाता है। इतने ही नहीं, उनके संग से बहुत से दोष सुगमतापूर्वक दूर हो जाते हैं। गोस्वामी तुलसीदास कहते हैं- ‘सबहि मानप्रद आपु अमानी’[1] अर्थात संत सभी को मान देने वाले और स्वयं अमानी- मान पाने की इच्छा से रहित होते हैं। इसी तरह साधक को भी मानीपन दूर करने के लिए सदा दूसरों को मान, आदर, सत्कार, बड़ाई आदि देने का स्वभाव बनाना चाहिए। ऐसा स्वभाव तभी बन सकता है, जब वह दूसरों को किसी न किसी दृष्टि से अपने से श्रेष्ठ माने। यह नियम है कि प्रत्येक मनुष्य भिन्न-भिन्न स्थिति वाला होते हुए भी कोई न कोई विशेषता रखता ही है। यह विशेषता वर्ण, आश्रम, गुण, विद्या, बुद्धि, योग्यता, पद, अधिकार आदि किसी भी कारण से हो सकती है। अतः साधक को चाहिए कि वह दूसरों की विशेषता की तरफ दृष्टि रखकर उनका सदा सम्मान करे। इस प्रकार दूसरों को मान देने का भीतर से स्वभाव बन जाने से स्वयं मान पाने की इच्छा का स्वतः अभाव होता चला जाता है। हाँ, दूसरों को मान देते समय साधक का उद्देश्य अपने में मानीपन मिटाने का होना चाहिए, बदले में दूसरों से मान पाने का नहीं। गीता में भगवान ने भक्तिमार्ग साधक में सबसे पहले भय का अभाव बताया है- ‘अभयम्’[2], और अंत में मानीपन का अभाव बताया है- ‘नातिमानिता’।[3] परंतु ज्ञानमार्ग के साधन में मानीपन का अभाव सबसे पहले बताया है- ‘अमानित्वम्’[4] और भय का अभाव सबसे अंत में बताया है- ‘तत्त्वज्ञानार्थ-दर्शनम्’[5] इसका तात्पर्य यह है कि जैसे बालक अपनी माँ को देखकर अभय हो जाता है, ऐसे ही भक्तिमार्ग में साधक प्रह्लाद जी की तरह आरंभ से ही सब जगह अपने प्रभु को ही देखता है, इसलिए वह आरंभ में ही अभय हो जाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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