श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
त्रयोदश अध्याय
महाभूतान्यहंकारो बुद्धिरव्यक्तमेव च । अर्थ- मूल प्रकृति, समष्टि बुद्धि (महत्तत्त्व), समष्टि अहंकार, पाँच महाभूत और दस इंद्रियाँ, एक मन तथा पाँचों इंद्रियों के पाँच विषय (यह चौबीस तत्त्वों वाला क्षेत्र है)। व्याख्या- ‘अव्यक्तमेव च’- अव्यक्त नाम मूल प्रकृति का है। मूल प्रकृति समष्टि बुद्धि का कारण होने से और स्वयं किसी का भी कार्य न होने से केवल ‘प्रकृति’ ही है। ‘बुद्धिः’- यह पद समष्टि बुद्धि अर्थात महत्तत्त्व का वाचक है। इस बुद्धि से अहंकार पैदा होता है, इसलिए यह ‘प्रकृति’ है और मूल प्रकृति का कार्य होने से यह ‘विकृति’ है। तात्पर्य है कि यह बुद्धि ‘प्रकृति-विकृति’ है। ‘अहंकारः’- यह पद समष्टि अहंकार का वाचक है। इसको अहंभाव भी कहते हैं। पञ्चमहाभूत का कारण होने से यह अहंकार ‘प्रकृति’ है और बुद्धि का कार्य होने से यह ‘विकृति’ है। तात्पर्य है कि यह अहंकार ‘प्रकृति-विकृति’ है। ‘महाभूतानि’- पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश- ये पाँच महाभूत हैं। महाभूत दो प्रकार के होते हैं- पञ्चीकृत और अपञ्चीकृत। एक-एक महाभूत के पाँच विभाग होकर जो मिश्रण होता है, उसको ‘पञ्चीकृत महाभूत’ कहते हैं।[1] इन पाँच महाभूतों के विभाग न होने पर इनको ‘अपञ्चीकृत महाभूत’ कहते हैं। यहाँ इन्हीं अपञ्चीकृत महाभूतों का वाचक ‘महाभूतानि’ पद है। इन महाभूतों को ‘पञ्चतंत्रमात्राएँ’ तथा ‘सूक्ष्म महाभूत’ भी कहते हैं। दस इंद्रियों, एक मन और शब्दादि पाँच विषयों के कारण होने से ये महाभूत ‘प्रकृति’ हैं और अहंकार के कार्य होने से ये ‘विकृति’ हैं। तात्पर्य है कि ये पञ्चमहाभूत ‘प्रकृति-विकृति’ हैं। ‘इन्द्रियाणि दश’- श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, रसना और घ्राण- ये पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं तथा वाक्, पाणि, पाद, उपस्थ और पायु- ये पाँच कर्मेन्द्रियाँ हैं। ये दसों इंद्रियाँ अपञ्चीकृत महाभूतों से पैदा होने से और स्वयं किसी का भी कारण न होने से केवल ‘विकृति’ ही हैं। ‘एकं च’- अपञ्चीकृत महाभूतों से पैदा होने से और स्वयं किसी का भी कारण न होने से मन केवल ‘विकृति’ ही है। ‘पञ्च चेन्द्रियगोचराः’- शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध- ये (पाँच ज्ञानेन्द्रियों के) पाँच विषय हैं। अपञ्चीकृत महाभूतों से पैदा होने से और स्वयं किसी के भी कारण न होने से ये पाँचों विषय केवल ‘विकृति’ ही हैं। इन सबका निष्कर्ष यह निकला कि पाँच महाभूत, एक अहंकार और एक बुद्धि- ये सात ‘प्रकृति-विकृति’ हैं, मूल प्रकृति केवल ‘प्रकृति’ है और दस इंद्रियाँ, एक मन और पाँच ज्ञानेन्द्रियों के विषय- ये सोलह केवल ‘विकृति’ हैं। इस तरह इन चौबीस तत्त्वों के समुदाय का नाम ‘क्षेत्र’ है। इसी का एक तुच्छ अंश यह मनुष्य-शरीर है, जिसको भगवान ने पहले श्लोक में ‘इदं शरीरम्’ और तीसरे श्लोक में ‘तत्क्षेत्रम्’ पद से कहा है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ आकाश के दो विभाग हैं, जिनमें से आधा भाग आकाश अपने स्वरूप से रहा और दूसरे आधे भाग के चार विभाग किए। उनमें से एक भाग वायु को, एक भाग तेज को, एक भाग जल को और एक भाग पृथ्वी को दिया। वायु के दो विभाग हैं। उनमें से आधा भाग वायु अपने स्वरूप से रही है और दूसरे आधे भाग के चार विभाग किए, जिनको क्रमशः आकाश, तेज, जल और पृथ्वी को दिया। तेज को दो विभाग हैं। उनमें से आधा भाग तेज अपने स्वरूप से रहा और दूसरे आधे भाग के चार विभाग करके क्रमशः एक-एक भाग आकाश, वायु, जल और पृथ्वी को दिया। जल के दो विभाग हैं। उनमें से आधा भाग जल अपने स्वरूप से रहा और दूसरे आधे भाग के चार विभाग क्रमशः एक-एक भाग आकाश, वायु, तेज और पृथ्वी को दिया। ऐसे ही पृथ्वी के दो विभाग हैं। उनमें से आधा भाग पृथ्वी अपने स्वरूप से रही और दूसरे आधे भाग के चार विभाग करके क्रमशः एक-एक भाग आकाश, वायु, तेज और जल को दिया। इस तरह पाँचों महाभूतों का पञ्चीकरण- मिश्रण होने से इसको ‘पञ्चीकृत महाभूत’ कहते हैं।
संबंधित लेख
श्लोक संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज