श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
त्रयोदश अध्याय
ऋषिभिर्बहुधा गीतं छन्दोभिर्विविधैः पृथक् । अर्थ- (यह क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का तत्त्व) ऋषियों के द्वारा बहुत विस्तार से कहा गया है तथा वेदों की ऋचाओं द्वारा बहुत प्रकार से कहा गया है और युक्तियुक्त एवं निश्चित किए हुए ब्रह्मसूत्र के पदों द्वारा भी कहा गया है। व्याख्या- ‘ऋषिभिर्बहुधा गीतम्’- वैदिक मंत्रों के द्रष्टा तथा शास्त्रों, स्मृतियों और पुराणों के रचयिता ऋषियों ने अपने-अपने (शास्त्र, स्मृति आदि) ग्रंथों में जड-चेतन, सत्-असत्, शरीर-शरीरी, देह-देही, नित्य-अनित्य आदि शब्दों से क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का बहुत विस्तार से वर्णन किया है। ‘छन्दोभिर्विविधैः पृथक्’- यहाँ ‘विविधैः’ विशेषणसहित ‘छन्दोभिः’ पद ऋक्, यजुः, साम और अथर्व- इन चारों वेदों के ‘संहिता’ और ‘ब्राह्मण’ भागों के मंत्रों का वाचक है। इन्हीं के अंतर्गत संपूर्ण उपनिषद् और भिन्न-भिन्न शाखाओं को भी समझ लेना चाहिए। इनमें क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का अलग-अलग वर्णन किया गया है। ‘ब्रह्मसूत्रपदैश्चैव हेतुमद्भिर्विनिश्चतैः’- अनेक युक्तियों से युक्त तथा अच्छी तरह से निश्चित किए हुए ब्रह्म सूत्र के पदों द्वारा भी क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का जो संक्षेप से वर्णन मैं कर रहा हूँ, उसे अगर कोई विस्तार से देखना चाहे तो वह उपर्युक्त ग्रंथों में देख सकता है। संबंधः- तीसरे श्लोक में क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ के विषय में जिन छः बातों को संक्षेप से सुनने की आज्ञा दी थी, उनमें से क्षेत्र की दो बातों का अर्थात उसके स्वरूप और विकारों का वर्णन आगे के दो श्लोकों में करते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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