श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
त्रयोदश अध्याय
क्षेत्रज्ञ का स्वरूप उत्पत्ति-विनाशरहित है, इसलिए ये उसका स्वभाव भी उत्पत्ति-विनाशरहति है। अतः भगवान ने उसके स्वभाव का अलग से वर्णन न करके स्वरूप के अंतर्गत ही कर दिया। क्षेत्र के साथ अपना संबंध मानने के कारण ही क्षेत्रज्ञ में इच्छा-द्वेषादि विकारों की प्रतीति होती है, अन्यथा क्षेत्रज्ञ (स्वरूपतः) सर्वथा निर्विकार ही है। अतः निर्विकार क्षेत्रज्ञ के विकारों का वर्णन संभव ही नहीं। क्षेत्रज्ञ अद्वितीय, अनादि और नित्य है। अतः इसके विषय में ‘कौन किससे पैदा हुआ’- यह प्रश्न ही नहीं बनता। संबंधः -पूर्व श्लोक में जिसको संक्षेप से सुनने के लिए कहा गया है, उसका विस्तार से वर्णन कहा हुआ है- इसको आगे के श्लोक में बताते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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