श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
त्रयोदश अध्याय
‘एतद्यो वेत्ति’- जीवात्मा इस शरीर को जानता है अर्थात यह शरीर मेरा है, इंद्रियाँ मेरी हैं, मन मेरा है, बुद्धि मेरी है, प्राण मेरे हैं- ऐसा मानता है। यह जीवात्मा इस शरीर को कभी ‘मैं’ कह देता है और कभी ‘यह’ कह देता है अर्थात ‘मैं शरीर हूँ’- ऐसा भी मान लेता है। इस श्लोक के पूर्वार्ध में शरीर को ‘इदम्’ पद से कहा है और उत्तरार्ध में शरीर को ‘एतत्’ पद से कहा है। यद्यपि ये दोनों ही पद नजदीक के वाचक हैं, तथापि ‘इदम्’ की अपेक्षा ‘एतत्’ पद अत्यंत नजदीक का वाचक है। अतः ‘इदम्’ पद अंगुलिनिदिष्ट शरीर-समुदाय का द्योतन करता है और ‘एतत्’ पद इस शरीर में जो ‘मैं’ –पन है, उस मैं –पन का द्योतन करता है। ‘तं प्राहुः क्षेत्रज्ञ[1] इति तद्विदः’- जैसे दूसरे अध्याय के सोलहवें श्लोक में सत्-असत् के तत्त्व को जानने वालों को तत्त्वदर्शी कहा है, ऐसे ही यहाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ के तत्त्व को जानने वालों को ‘तद्विदः’ कहा है। क्षेत्र क्या है और क्षेत्रज्ञ क्या है- इसका जिनको बोध हो चुका है, ऐसे तत्त्वज्ञ महापुरुष इस जीवात्मा को ‘क्षेत्रज्ञ’ नाम से कहते हैं। तात्पर्य है कि क्षेत्र की तरफ दृष्टि रहने से, क्षेत्र के साथ संबंध रहने से ही इस जीवात्मा को वे ज्ञानी महापुरुष ‘क्षेत्रज्ञ’ कहते हैं। अगर यह जीवात्मा क्षेत्र के साथ संबंध न रखे, तो फिर इसकी ‘क्षेत्रज्ञ’ संज्ञा नहीं रहेगी, यह परमात्मस्वरूप हो जाएगा।[2] मार्मिक बात यह नियम है कि जहाँ से बंधन होता है, वहाँ से खोलने पर ही (बंधन से) छुटकारा हो सकता है। अतः मनुष्य शरीर से ही बंधन होता है और मनुष्य शरीर के द्वारा ही बंधन से मुक्ति हो सकती है। अगर मनुष्य का अपने शरीर के साथ किसी प्रकार का भी अहंता-ममतारूप संबंध न रहे, तो वह मात्र संसार से मुक्त ही है। अतः भगवान शरीर के साथ माने हुए अहंता-ममतारूप संबंध का विच्छेद करने के लिए शरीर को ‘क्षेत्र’ बताकर उसको इदंता (पृथक्ता) से देखने के लिए कह रहे हैं, जो कि वास्तव में पृथक है ही। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ यद्यपि ‘प्राहुः’ क्रिया का कर्म होने से ‘क्षेत्रज्ञ’ शब्द में द्वितीया विभक्ति होनी चाहिए थी, तथापि आगे ‘इति’ पद आने से अर्थात ‘इति’ पद से उक्त होने से ‘क्षेत्रज्ञ’ शब्द में प्रथमा विभक्ति हो गयी है।
- ↑ गीता 13:31
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