श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
द्वादश अध्याय
‘भक्तिमान्मे प्रियो नरः’- ‘भक्तिमान’ पद में ‘भक्ति’ के शब्द के साथ नित्ययोग के अर्थ में ‘मतुप्’ प्रत्यय है। इसका तात्पर्य यह है कि मनुष्य में स्वाभाविक रूप से ‘भक्ति’ (भगवत्प्रेम) रहती है। मनुष्य से भूल यही होती है कि वह भगवान को छोड़कर संसार की भक्ति करने लगता है। इसलिए उसे स्वाभाविक रहने वाली भगवद्भक्ति का रस नहीं मिलती और उसके जीवन में नीरसता रहती है। सिद्ध भक्त हरदम भक्ति-रस में तल्लीन रहता है। इसलिए उसको ‘भक्तिमान्’ कहा गया है। ऐसा भक्तिमान मनुष्य भगवान को प्रिय होता है।
‘नरः’ पद देने का तात्पर्य है कि भगवान को प्राप्त करके जिसने अपना मनुष्यजीवन सफल (सार्थक) कर लिया है, वही वास्तव में नर (मनुष्य) कहलाने योग्य है। जो मनुष्य शरीर को पाकर सांसारिक भोग और संग्रह में ही लगा हुआ है, वह नर (मनुष्य) कहलाने योग्य नहीं है। [इन दो श्लोकों में भक्त के सदा-सर्वदा समभाव में स्थित रहने की बात कही गयी है। शत्रु-मित्र, मान-अपमान, शीत-उष्ण, सुख-दुःख और निन्दा-स्तुति- इन पाँचों द्वंद्वों में समता होने से ही साधक पूर्णतः समभाव में स्थित कहा जाता है।]
भगवान ने पहले प्रकरण के अंतर्गत तेरहवें-चौदहवें श्लोकों में सिद्ध भक्तों के लक्षणों का वर्णन करके अंत में ‘यो मद्भक्तः स मे प्रियः’ कहा, दूसरे प्रकरण के अंतर्गत पंद्रहवें श्लोक के अंतर में ‘यः स च मे प्रियः’ कहा, तीसरे प्रकरण के अंतर्गत सोलहवें श्लोक के अंत में ‘यो मद्भक्तः स मे प्रियः’ कहा, चौथे प्रकरण के अंतर्गत सत्रहवें श्लोक के अंत में ‘भक्तिमान् यः स मे प्रियः’ कहा और अंतिम पाँचवें प्रकरण के अंतर्गत अठारहवें-उन्नीसवें श्लोकों के अंत में ‘भक्तिमान् मे प्रियो नरः’ कहा। इस प्रकार भगवान ने पाँच बार अलग-अलग ‘मे प्रियः’ पद देकर सिद्ध भक्त भक्तों के लक्षणों को पाँच भागों में विभक्त किया है। इसलिए सात श्लोकों में बताये गए सिद्ध भक्तों के लक्षणों को एक ही प्रकरण के अंतर्गत नहीं समझना चाहिए। इसका मुख्य कारण यह है कि यदि एक ही प्रकरण होता, तो एक लक्षण को बार-बार न कहकर एक ही बार कहा जाता, और ‘मे प्रियः’ पद भी एक ही बार कहे जाते।
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