श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
द्वादश अध्याय
भगवान ने दूसरे अध्याय के उनसठवें श्लोक में ‘परं दृष्ट्वा निवर्तते’ पदों से भगवत्प्राप्ति के बाद आसक्ति की सर्वथा निवृत्ति की बात कही है। भगवत्प्राप्ति से पहले भी आसक्ति की निवृत्ति हो सकती है, पर भगवत्प्राप्ति के बाद तो आसक्ति सर्वथा निवृत्त हो ही जाती है। भगवत्प्राप्त महापुरुष में आसक्ति का सर्वथा अभाव होता ही है। परंतु भगवत्प्राप्ति से पूर्व सावधानावस्था में आसक्ति का सर्वथा अभाव होता ही नहीं- ऐसा नियम नहीं है। साधनावस्था में भी आसक्ति का सर्वथा अभाव होकर साधक को तत्काल भगवत्प्राप्ति हो सकती है।[2] आसक्ति न तो परमात्मा के अंश शुद्ध चेतन में रहती है और न जड (प्रकृति) में ही। वह जड और चेतन के संबंधरूप ‘मैं’- पन की मान्यता में रहती है। वही आसक्ति बुद्धि, मन, इंद्रियों और विषयों (पदार्थों) में प्रतीत होती है। अगर साधक के ‘मैं’ –पन की मान्यता में रहने वाली आसक्ति मिट जाए, तो दूसरी जगह प्रतीत होने वाली आसक्ति स्वतः मिट जाएगी। आसक्ति का कारण अविवेक है। अपने विवेक को पूर्णतया महत्त्व न देने से साधक में आसक्ति रहती है। भक्त में अविवेक नहीं रहता। इसलिए वह आसक्ति से सर्वथा रहित होता है। वास्तव में जीवमात्र की भगवान के प्रति स्वाभाविक अनुरक्ति (प्रेम) है। जहाँ तक संसार के साथ भूल से माना हुआ अपनेपन का संबंध है, तब तक वह अनुरक्ति प्रकट नहीं होती, प्रत्युत संसार में आसक्ति के रूप में प्रतीत होती है। संसार की आसक्ति रहते हुए भी वस्तुतः भगवान की अनुरक्ति मिटती नहीं। अनुरक्ति के प्रकट होते ही आसक्ति (सूर्य का उदय होने पर अंधकार की तरह) सर्वथा निवृत्त हो जाती है। ज्यों-ज्यों संसार से विरक्ति होती है, त्यों-ही-त्यों भगवान में अनुरक्ति प्रकट होती है। यह नियम है कि आसक्ति को समाप्त करके विरक्ति स्वयं भी उसी प्रकार शांत हो जाती है, जिस प्रकार लकड़ी को जलाकर अग्नि। इस प्रकार आसक्ति और विरक्ति के न रहने पर स्वतः स्वभाविक अनुरक्ति (भगवत्प्रेम) का स्रोत प्रवाहित होने लगता। इसके लिए किञ्चिन्मात्र भी कोई उद्योग नहीं करना पड़ता। फिर भक्त सब प्रकार से भगवान के पूर्ण समर्पित हो जाता है। उसकी संपूर्ण क्रियाएँ भगवान की प्रियता के लिए ही होती हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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