श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
द्वादश अध्याय
‘मुक्तः’ पद का अर्थ है- विकारों से सर्वथा छूटा हुआ। अंतःकरण में संसार का आदर रहने से अर्थात परमात्मा में पूर्णतया मन-बुद्धि न लगने से ही हर्ष, अमर्ष, भय, उद्वेग आदि विकार उत्पन्न होते हैं। परंतु भक्त की दृष्टि में एक भगवान के सिवाय अन्य किसी की स्वतंत्र सत्ता और महत्ता न रहने से उसमें ये विकार उत्पन्न ही नहीं होते। उसमें स्वाभाविक ही सद्गुण-सदाचार रहते हैं। इस श्लोक में भगवान ने ‘भक्तः’ पद न देकर ‘मुक्तः’ पद दिया है। इसका तात्पर्य यह है कि भक्त यावन्मात्र दुर्गुण-दुराचारों से सर्वथा रहित होता है। गुणों का अभिमान होने से दुर्गुण अपने-आप आ जाते हैं। अपने में किसी गुण के आने पर अभिमान रूप दुर्गुण उत्पन्न हो जाए तो उस गुण को गुण कैसे माना जा सकता है? दैवी संपत्ति (सद्गुण) से कभी आसुरी संपत्ति (दुर्गुण) उत्पन्न नहीं हो सकती। अगर दैवी संपत्ति से आसुरी संपत्ति की उत्पत्ति होती तो ‘दैवी संपद्विमोक्षाय’[1]- इन भगवद्वचनों के अनुसार मनुष्य मुक्त कैसे होता? वास्तव में गुणों के अभिमान में गुण कम तथा दुर्गुण (अभिमान) अधिक होता है। अभिमान से दुर्गुणों की वृद्धि होती है; क्योंकि सभी दुर्गुण-दुराचर अभिमान के ही आश्रित रहते हैं। भक्त को तो प्रायः इस बात की जानकारी ही नहीं होती कि मेरे में कोई गुण है। अगर उसको अपने में कभी कोई गुण दिखता भी है तो वह उसको भगवान का ही मानता है, अपना नहीं। इस प्रकार गुणों का अभिमान न होने के कारण भक्त सभी दुर्गुण-दुराचारों, विकारों से मुक्त होता है। भक्त को भगवान प्रिय होते हैं, इसलिए भगवान को भी भक्त प्रिय होते हैं।[2] संबंध- सिद्ध भक्त के छः लक्षण बताने वाला तीसरा प्रकरण आगे के श्लोक में आया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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