श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
द्वादश अध्याय
‘लोकान्नोद्विजते च यः’- पहले भगवान ने बताया कि भक्त से किसी प्राणी को उद्वेग नहीं होता और अब उपर्युक्त पदों से यह बताते हैं कि भक्त को खुद भी किसी प्राणी से उद्वेग नहीं होता। इसके दो कारण हैं-
‘हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तो यः स च मे प्रियः’- यहाँ हर्ष से मुक्त होने का तात्पर्य यह है कि सिद्ध भक्त सब प्रकार के हर्षादि विकारों से सर्वथा रहित होता है। पर इसका आशय यह नहीं है कि सिद्ध भक्त सर्वथा हर्षरहित (प्रसन्नता शून्य) होता है, प्रत्युत उसकी प्रसन्नता तो नित्य, एकरस, विलक्षण और अलौकिक होती है। हाँ, उसकी प्रसन्नता सांसारिक पदार्थों के संयोग-वियोग से उत्पन्न क्षणिक, नाशवान तथा घटने-बढ़ने वाली नहीं होती। सर्वत्र भगवद्बुद्धि रहने से एकमात्र अपने इष्टदेव भगवान को और उनकी लीलाओं को देख-देखकर वह सदा ही प्रसन्न रहता है। किसी के उत्कर्ष (उन्नति) को सहन न करना ‘अमर्ष’ कहलाता है। दूसरे लोगों को अपने समान या अपने से अधिक सुख-सुविधा, धन, विद्या, महिमा, आदर-सत्कार आदि प्राप्त हुआ देखकर साधारण मनुष्य के अंतःकरण में उनके प्रति ईर्ष्या होने लगती है; क्योंकि उसको दूसरों का उत्कर्ष सहन नहीं होता। कई बार कुछ साधकों के अंतःकरण में भी दूसरे साधकों की आध्यात्मिक उन्नति और प्रसन्नता देखकर अथवा सुनकर किञ्चिन्त ईर्ष्या का भाव पैदा हो जाता है। पर भक्त इस विकार से सर्वथा रहित होता है; क्योंकि उसकी दृष्टि में अपने प्रिय प्रभु के सिवाय अन्य किसी की स्वतंत्र सत्ता रहती ही नहीं। फिर वह किसके प्रति अमर्ष करे और क्यों करे? |
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