श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
द्वादश अध्याय
‘क्षमी’- अपना किसी तरह का भी अपराध करने वाले को किसी भी प्रकार का दंड देने की इच्छा न रखकर उसे क्षमा कर देने वाले को ‘क्षमी’ कहते हैं। भक्त के लक्षणों में पहले ‘अद्वेष्टा’ पद देकर भगवान ने भक्त में अपना अपराध करने वाले के प्रति द्वेष का अभाव बताया, अब यहाँ ‘क्षमी’ पद से यह बताते हैं कि भक्त में अपना अपराध करने वाले के प्रति ऐसा भाव रहता है कि उसको भगवान अथवा अन्य किसी के द्वारा भी दंड न मिले। ऐसा क्षमाभाव भक्त की एक विशेषता है। ‘संतुष्टः सततम्’[2] जीव को मन के अनुकूल प्राणी, पदार्थ, घटना, परिस्थिति आदि के संयोग में और मन के प्रतिकूल प्राणी, पदार्थ, घटना, परिस्थिति आदि के वियोग में एक संतोष होता है। विजातीय और अनित्य पदार्थों से होने के कारण यह संतोष स्थायी नहीं रह पाता। स्वयं नित्य होने के कारण जीव को नित्य परमात्मा की अनुभूति से ही वास्तविक और स्थायी संतोष होता है। भगवान को प्राप्त होने पर भक्त नित्य-निरंतर संतुष्ट रहता है; क्योंकि न तो उसका भगवान से कभी वियोग होता है और न उसको नाशवान संसार की कोई आवश्यकता ही रहती है। अतः उसके असंतोष का कोई कारण ही नहीं रहता। इस संतुष्टि के कारण वह संसार के किसी भी प्राणी-पदार्थ के प्रति किञ्चिन्मात्र भी महत्त्वबुद्धि नहीं रखता।[3] ‘संतुष्टः’ के साथ ‘सततम्’ पद देकर भगवान ने भक्त के उस नित्य-निरंतर रहने वाले संतोष की ओर ही लक्ष्य कराया है, जिसमें न तो कभी कोई अंतर पड़ता है और न कभी अंतर पड़ने की संभावना ही रहती। कर्मयोग, ज्ञानयोग या भक्तियोग- किसी भी योगमार्ग से सिद्धि प्राप्त करने वाले महापुरुष में ऐसी संतुष्टि (जो वास्तव में) निरंतर रहती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ जो सुख-दुःख उत्पन्न करने में हेतु है
- ↑ ऐसे संतोषी के लिए भागवतकार कहते हैं-
सदा संतुष्टमनसः सर्वाः सुखमया दिशाः। शर्कराकण्टकादिभ्यो यथोपानत्पदः शिवम् ।। (श्रीमद्भागवत 7।15।17)
जैसे पैरों में जूते पहनकर चलने वाले को कंकड़ और काँटों से कोई भय नहीं होता, ऐसे ही जिसके मन में संतोष है, उसके लिए सर्वथा सब जगह सुख-ही-सुख है, दुःख है ही नहीं। - ↑ संत कबीरदास जी कहते हैं-
गोधन गजधन बाजिधन, और रतन धन खान। जब आवै संतोष धन, सब धन धूरि समान ।।
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