श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
द्वादश अध्याय
पातञ्जल योग दर्शन में चित्त-शुद्धि के चार हेतु बताये गये हैं- ‘मैत्रीकरुणामुदितोपेक्षाणां सुखदुःकपुण्यापुण्यविषयाणां भावनातश्चित्तप्रसादनम्।’[1] ‘सुखियों के प्रति मैत्री, दुःखियों के प्रति करुणा, पुण्यात्माओं के प्रति मुदिता (प्रसन्नता) और पापात्माओं के प्रति उपेक्षा के भाव से चित्त में निर्मलता आती है।’ परंतु भगवान ने इन चारों हेतुओं को दो में विभक्त कर दिया है- ‘मैत्रः च करुणः।’ तात्पर्य यह है कि सिद्धि भक्त का सुखियों और पुण्यात्माओं के प्रति ‘मैत्री’ का भाव तथा दुःखियों और पापात्माओं के प्रति ‘करुणा’ का भाव रहता है। दुःख पाने वाले की अपेक्षा दुःख देने वाले पर (उपेक्षा का भाव न होकर) दया होनी चाहिए; क्योंकि दुःख पाने वाला तो (पुराने पापों का फल भोगकर) पापों से छूट रहा है, पर दुःख देने वाला नया पाप कर रहा है। अतः दुःख देने वाला दया का विशेष पात्र है। ‘निर्ममः’- यद्यपि भक्त का प्राणिमात्र के प्रति स्वाभाविक ही मैत्री और करुणा का भाव रहता है, तथापि उसकी किसी के प्रति किञ्चिन्मात्र भी ममता नहीं होती। प्राणियों और पदार्थों में ममता (मेरेपन का भाव) ही मनुष्य को संसार में बाँधने वाली होती है। भक्त इस ममता से सर्वथा रहित होता है। इसकी अपने कहलाने वाले शरीर, इंद्रियाँ, मन और बुद्धि में भी बिलकुल ममता नहीं होती। साधक से भूल यह होती है कि वह प्राणियों और पदार्थों से तो ममता को हटाने की चेष्टा करता है पर अपने शरीर, मन, बुद्धि और इंद्रियों से ममता हटाने की ओर विशेष ध्यान नहीं देता। इसलिए वह सर्वथा निर्मम नहीं हो पाता। ‘निरहंकारः’- शरीर, इंद्रियाँ आदि जड़ पदार्थों को अपना स्वरूप मानने से अहंकार उत्पन्न होता है। भक्त की अपने शरीरादि के प्रति किञ्चिन्मात्र भी अहंबुद्धि न होने के कारण तथा केवल भगवान से अपने नित्य संबंध का अनुभव हो जाने के कारण उसके अंतःकरण में स्वतः श्रेष्ठ, दिव्य, अलौकिक गुण प्रकट होने लगते हैं। इन गुणों को भी वह अपने गुण नहीं मानता, प्रत्युत (दैवी सम्पत्ति होने से) भगवान के ही मानता है। ‘सत्’ (परमात्मा) के होने के कारण ही ये गुण ‘सद्गुण’ कहलाते हैं। ऐसी दशा में भक्त उनको अपना मान ही कैसे सकता है! इसलिए वह अहंकार से सर्वथा रहित होता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1।33
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