श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
द्वादश अध्याय
इस प्रकरण में अर्जुन को निमित्त बनाकर भगवान ने मनुष्यमात्र के लिए चार साधन बताए हैं- (1) समर्पणयोग, (2)अभ्यासयोग, (3)भगवान के लिए ही संपूर्ण कर्मों का अनुष्ठान और (4)सर्वकर्मफलत्याग। यद्यपि चारों साधनों का फल भगवत्प्राप्ति ही है, तथापि साधकों में रुचि, श्रद्धा-विश्वास और योग्यता की भिन्नता के कारण ही भिन्न-भिन्न साधनों का वर्णन हुआ है। वास्तव में चारों ही साधन समानरूप से स्वतंत्र और श्रेष्ठ हैं। इसलिए साधक जो भी साधन अपनाये, उसे उस साधन को ही सर्वोपरि मानना चाहिए। अपने साधन को किसी भी तरह हीन (निम्न श्रेणी का) नहीं मानना चाहिए और साधन की सफलता (भगवत्प्राप्ति) के विषय में कभी निराश भी नहीं होना चाहिए; क्योंकि कोई भी साधन निम्न श्रेणी का नहीं होता। अगर साधक का एकमात्र उद्देश्य भगवत्प्राप्ति हो, साधन उसकी रुचि, विश्वास तथा योग्यता के अनुसार हो, साधन पूरी सामर्थ्य और तत्परता (लगन) से किया जाए और भगवत्प्राप्ति की उत्कण्ठता भी तीव्र हो तो सभी साधन एक समान हैं। साधक को उद्देश्य, सामर्थ्य और तत्परता के विषय में कभी हतोत्साह नहीं होना चाहिए। भगवान साधक से इतनी ही अपेक्षा रखते हैं कि वह अपनी पूरी सामर्थ्य और योग्यता को साधन में लगा दे। साधक चाहे भगवत्प्राप्त को ठीक-ठीक न जाने, पर सर्वज्ञ भगवान तो उसके उद्देश्य, भाव, सामर्थ्य, तत्परता आदि को अच्छी तरह जानते ही हैं। यदि साधक अपने उद्देश्य, भाव, चेष्टा, तत्परता, उत्कण्ठा आदि आदि में किसी प्रकार की कमी न आने दे तो भगवान स्वयं उसे अपनी प्राप्ति करार देते हैं। वास्तव में अपने उद्योग, बल, ज्ञान आदि की कीमत से भगवान की प्राप्ति हो ही नहीं सकती। अगर भगवान के दिए हुए बल, ज्ञान आदि को भगवान की प्राप्ति के लिए ही लगा दिया जाए तो वे साधक को कृपापूर्वक अपनी प्राप्ति करा देते हैं। संसार में भगवत्प्राप्ति ही सबसे सुगम है और इसके सभी अधिकारी हैं; क्योंकि इसी के लिए मनुष्य शरीर मिला है। सब प्राणियों के कर्म भिन्न-भिन्न होने के कारण किन्हीं दो व्यक्तियों को भी संसार के पदार्थ एक समान नहीं मिल सकते, जबकि (भगवान एक होने से) भगवत्प्राप्ति सबको एक समान ही होती है; क्योंकि भगवत्प्राप्ति कर्मजन्य नहीं है। |
संबंधित लेख
श्लोक संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज