श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
द्वादश अध्याय
साधन संबंधी विशेष बात भगवान ने नवें, दसवें और ग्यारहवें श्लोक में क्रमशः जो तीन साधन (अभ्यासयोग, भगवदर्थ-कर्म और कर्मफल-त्याग) बताए हैं, विचारपूर्वक देखा जाए तो उनमें से (कर्मफलत्याग को छोड़कर) प्रत्येक साधन में शेष दोनों साधन भी आ जाते हैं; जैसे- (1.) अभ्यासयोग में भगवान के लिए भजन, नाम-जप आदि क्रियाएँ करने से वह भगवदर्थ है ही और नाशवान फल की कामना न होने से उसमें कर्मफल त्याग भी है, (2.) भगवदर्थ कर्म में भगवान के लिए कर्म होने से अभ्यासयोग भी है और नाशवान् फल की कामना न होने से कर्मफलत्याग भी है। वास्तव में साधक को सबसे पहले अपने लक्ष्य, ध्येय अथवा उद्देश्य को दृढ़ करना चाहिए। इसके बाद उसे यह पहचानना चाहिए कि उसका संबंध वास्तव में किसके साथ है। फिर चाहे कोई भी साधन करे- अभ्यास करे, भगवत्प्रीत्यर्थ कर्म अथवा कर्मफलत्याग करे, वही साधन करके उसके लिए श्रेष्ठ हो जाएगा। जब साधक का यह लक्ष्य हो जाएगा कि उसे भगवान को ही प्राप्त करना है और वह यह भी पहचान लेगा कि अनादिकाल से उसका भगवान के साथ स्वतः सिद्ध संबंध है, तब कोई भी साधन उसके लिए छोटा नहीं रह जाएगा। किसी साधन का छोटा या बड़ा होना लौकिक दृष्टि से ही है। वास्तव में मुख्यता उद्देश्य की ही है। अतः साधक को चाहिए कि वह अपने उद्देश्य में कभी किञ्चिन्मात्र भी शिथिलता न आने दे। किसी साधन, की सुगमता या कठिनता साधक की ‘रुचि’ और ‘उद्देश्य’ पर निर्भर करती है। रुचि और उद्देश्य एक भगवान का होने से साधन सुगम होता है तथा रुचि संसार की और उद्देश्य भगवान का होने से साधन कठिन हो जाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ निषिद्ध कर्म न करने का निश्चय होने पर दो अवस्थाएं होती हैं- या तो विहित कर्मों में प्रवृत्ति होगी या सर्वथा निवृत्ति। विहित कर्मों में प्रवृत्ति से अंतःकरण निर्मल होता है और सर्वथा निवृत्ति होने से परमात्मा में स्थिति होती है। सर्वथा निवृत्ति का तात्पर्य वासनारहित अवस्था से है, न कि अकर्मण्यता या आलस्य से, क्योंकि आलस्य आदि भी निषिद्ध कर्म है।
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