श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
द्वादश अध्याय
‘कर्मफलत्याग’ कर्मयोग का ही दूसरा नाम है। कारण कि कर्मयोग में ‘कर्मफलत्याग’ ही मुख्य है। यह कर्मयोग भगवान श्रीकृष्ण के अवतार से बहुत पहले ही लुप्तप्राय हो गया था।[3] भगवान ने अर्जुन को निमित्त बनाकर कृपापूर्वक इस कर्मयोग को पुनः प्रकट किया।[4] भगवान ने इसको प्रकट करके प्रत्येक परिस्थिति में प्रत्येक मनुष्य को कल्याण का अधिकार प्रदान किया, अन्यथा अध्यात्ममार्ग के विषय में कभी यह सोचा ही नहीं जा सकता कि एकान्त के बिना, कर्मों को छोड़े बिना, वस्तुओं का त्याग किये बिना, स्वजनों के त्याग के बिना- प्रत्येक परिस्थिति में मनुष्य अपना कल्याण कर सकता है। कर्मयोग में फलासक्ति का त्याग ही मुख्य है। स्वस्थता- अस्वस्थता, धनवत्ता-निर्धनता, मान-अपमान, स्तुति-निंदा आदि सभी अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियाँ कर्मों के फलस्वरूप में आती हैं। इनके साथ राग-द्वेष रहने से कभी परमात्मा की प्राप्ति नहीं हो सकती।[5] उत्पन्न होने वाली मात्र वस्तुएं कर्मफल हैं। जो फलस्वरूप में मिला है, वह सदा रहने वाला नहीं होता; क्योंकि जब कर्म सदा नहीं रहता, तब उससे उत्पन्न होने वाला फल सदा कैसे रहेगा? इसलिए उसमें आसक्ति, ममता करना भूल ही है। जो फल कभी नहीं मिला है, उसकी कामना करना भी भूल है। अतः फलासक्ति का त्याग कर्मयोग का बीज है। कर्मयोग में क्रियाओं की प्रधानता प्रतीत होती है और शरीरादि जड़ पदार्थों के बिना क्रियाओं का होना संभव नहीं है, इसलिए कर्मों एवं फलों से छुटकारा पाना कठिन मालूम देता है। परंतु वास्तव में देखा जाए तो मिली हुई कर्म-सामग्री (शरीरादि जड़-पदार्थों) को अपनी तथा अपने लिए मानने से ही फलासक्ति का त्याग कठिन मालूम देता है। शरीरादि प्राप्त-सामग्री में किसी प्रकार की आसक्ति न रखकर कर्तव्य-कर्म करने से परमात्मा की प्राप्ति हो जाती है।[6] वास्तव में क्रियाएँ कभी बंधन कारक नहीं होतीं। बंधन का मूल हेतु कामना और फलासक्ति है। कामना और फलासक्ति के मिटने पर सभी कर्म अकर्म हो जाते हैं।[7] भगवान ने कर्मयोग को कर्मसंन्यास से भी श्रेष्ठ बताया है।[8] भगवान के मत में स्वरूप से कर्मों का त्याग करने वाला व्यक्ति संन्यासी नहीं है, प्रत्युत कर्मफल का आश्रय न लेकर कर्तव्य-कर्म करने वाला कर्मयोगी ही संन्यासी है।[9] आसक्तिरहित कर्मयोगी सभी संकल्पों से मुक्त होकर सुगमतापूर्वक योगारूढ़ हो जाता है।[10] इसके विपरीत जो कर्म तथा उनके फलों को अपना और अपने लिए मानकर सुख-भोग की इच्छा रखते हैं, वे वास्तव में पाप का ही भोग करते हैं।[11] अतः फलासक्ति ही संसार में बंधन का मुख्य कारण है- ‘फले सक्तो निबध्यते’[12] इसका त्याग ही वास्तव में त्याग है।[13] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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