श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
द्वादश अध्याय
त्याग असीम होता है। संसार के संबंध में तो सीमा होती है, पर संसार के त्याग (संबंध-विच्छेद) में सीमा नहीं होती। तात्पर्य है कि जिन वस्तुओं से हम अपना संबंध जोड़ते हैं, उन वस्तुओं की तो सीमा होती है, पर उन वस्तुओं का त्याग असीम होता है। त्याग करते ही परमात्मतत्त्व की प्राप्ति हो जाती है। परमात्मतत्त्व की प्राप्ति भी असीम होती है। कारण कि परमात्मतत्त्व देश, काल, वस्तु, व्यक्ति आदि की सीमा से रहित (असीम) है। सीमित वस्तुओं के मोह के कारण ही उस असीम परमात्मतत्त्व का अनुभव नहीं होता। ‘कर्मफलत्याग’ में संसार से माने हुए संबंध का त्याग हो जाता है। इसलिए यहाँ ‘त्यागात्’ पद कर्मों और उनके फलों (संसार) के साथ भूल से माने हुए संबंध का त्याग करने में अर्थ ही आया है। यही त्याग का वास्तविक स्वरूप है। त्याग के अंतर्गत जप, भजन, ध्यान, समाधि आदि के फल का त्याग भी समझना चाहिए। कारण कि जब तक जप, भजन, ध्यान, समाधि अपने लिए की जाती है, तब तक व्यक्तित्व बना रहने से बंधन बना रहता है। अतः अपने लिए किया हुआ ध्यान, समाधि आदि भी बंधन ही है। इसलिए किसी भी क्रिया के साथ अपने ले कुछ भी चाह न रखना ही ‘त्याग’ है। वास्तविक त्याग में त्याग-वृत्ति से भी संबंध-विच्छेद हो जाता है। यहाँ ‘शान्तिः’ पद का तात्पर्य परमशांति की प्राप्ति है। इसी को भगवत्प्राप्ति कहते हैं। अभ्यास, ज्ञान और ध्यान- तीनों साधनों से वस्तुतः कर्मफलत्याग रूप साधन श्रेष्ठ है। जब तक साधक में फल की आसक्ति रहती है, तब तक वह (जड़ता आश्रय रहने से) मुक्त नहीं हो सकता।[1] इसलिए फलासक्ति के त्याग की जरूरत अभ्यास, ज्ञान और ध्यान- तीनों ही साधनों में है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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