श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
द्वादश अध्याय
इस प्रकार मिली हुई सामग्री (जड़ता) का प्रवाह संसार (जड़ता) की ही तरफ हो जाने से उसका जड़ता से सर्वथा संबंध-विच्छेद हो जाता है और उसको परमात्मा से अपने स्वाभाविक और नित्यसिद्धि संबंध का अनुभव हो जाता है। इसलिए कर्मयोगी के लिए अलग से ध्यान लगाने की जरूरत नहीं है। अगर वह ध्यान लगाना भी चाहे, तो की सांसारिक कामना न होने के कारण वह सुगमतापूर्वक ध्यान लगा सकता है, जबकि सकाम-भाव के कारण सामान्य साधक को ध्यान लगाने में कठिनाई होती है। गीता के छठे अध्याय में (ध्यानयोग के प्रकरण में) भगवान ने बताया है कि ध्यान का अभ्यास करते-करते अंत में जब साधक का चित्त एकमात्र परमात्मा में अच्छी तरह से स्थित हो जाता है, तब वह संपूर्ण कामनाओं से सहित हो जाता है और चित्त के उपराम होने पर वह स्वयं से परमात्मतत्त्व में स्थित हो जाता है।[1] परंतु कर्मयोगी संपूर्ण कामनाओं का त्याग करके तत्काल स्वयं से परमात्मतत्त्व में स्थित हो जाता है।[2] कारण यह है कि ध्यान में परमात्मा में चित्त लगाया जाता है, इसलिए उसमें चित्त (जड़ता) का आश्रय रहने के कारण चित्त (जड़ता) के साथ बहुत दूर तक संबंध बना रहता है। परंतु कर्मयोग में ममता और कामना का त्याग किया जाता है, इसलिए उसमें ममता और कामना (जड़ता) का त्याग करने के साथ ही चित्त (जड़ता) का भी स्वतः त्याग हो जाता है। इसलिए परिणाम में समानरूप से परमात्मतत्त्व की प्राप्ति होने पर भी ध्यान का अभ्यास करने वाले साधक को ध्येय में चित्त लगाने में कठिनाई होती है तथा उसे परमात्मतत्त्व का अनुभव भी देरी से होता है, जबकि कर्मयोगी को परमात्मतत्त्व का अनुभव सुगमतापूर्वक तथा शीघ्रता से होता है। इससे सिद्ध होता है कि ध्यान की अपेक्षा कर्मयोग का साधन श्रेष्ठ है। अपना कुछ नहीं, अपने लिए कुछ नहीं चाहिए और अपने लिए कुछ नहीं करना है- यही कर्मयोग का मूल महामंत्र है, जिसके कारण यह सब साधनों से विलक्षण हो जाता है- ‘कर्मयोगो विशिष्यते’।[3]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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