श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
द्वादश अध्याय
शास्त्रों के अध्ययन और सत्संग के द्वारा आध्यात्मिक जानकारी को तो प्राप्त कर ले, पर न तो उसके अनुसार वास्तविक तत्त्व का अनुभव करे और न ध्यान, अभ्यास और कर्मफलत्याग रूप किसी साधन का अनुष्ठान ही करे- ऐसी (केवल शास्त्रों की) जानकारी के लिए यहाँ ‘ज्ञानम्’ पद आया है। इस ज्ञान को उपर्युक्त अभ्यास की अपेक्षा श्रेष्ठ कहने का तात्पर्य यह है कि आध्यात्मिक ज्ञान से रहित अभ्यास भगवत्प्राप्ति में उतना सहायक नहीं होता, जितना अभ्यास से रहित ज्ञान सहायक होता है। कारण कि ज्ञान से भगवत्प्राप्ति की अभिलाषा जाग्रत हो सकती है, जिससे संसार से ऊँचा उठना जितना सुगम हो सकता है, उतना अभ्यासमात्र से नहीं। ‘ज्ञानाद्धय्यांन विशिष्यते’- यहाँ ‘ध्यान’ शब्द केवल मन की एकाग्रता रूप क्रिया का वाचक है, ध्यानयोग का वाचक नहीं। इस ध्यान में शास्त्रज्ञान और कर्मफलत्याग नहीं है, ऐसा ध्यान उस ज्ञान की अपेक्षा श्रेष्ठ है, जिस ज्ञान में अभ्यास, ध्यान और कर्मफलत्याग नहीं है। कारण कि ध्यान से मन का नियंत्रण होता है, जबकि केवल शास्त्र ज्ञान से मन का नियंत्रण नहीं होता। इसलिए मन-नियंत्रण के कारण ध्यान से जो शक्ति सञ्चित होती है, वह शास्त्रज्ञान से नहीं होती। यदि साधक उस शक्ति का सदुपयोग करके परमात्मा की तरफ बढ़ना चाहे, तो जितनी सुगमता उसको होगी, उतनी शास्त्र-ज्ञान वाले को नहीं। इसके साथ-साथ ध्यान करने वाले साधक को (अगर वह शास्त्र का अध्ययन करे, तो) मन की एकाग्रता के कारण वास्तविक ज्ञान की प्राप्ति बहुत सुगमता से हो सकती है, जबकि केवल शास्त्राध्यायी साधक को (चाहने पर भी) मन की चञ्चलता के कारण ध्यान लगाने में कठिनता होती है। [आजकल भी देखा जाए तो शास्त्र का अध्ययन करने वाले आदमी जितने मिलते हैं, उतने मन की एकाग्रता के लिए उद्योग करने वाले नहीं मिलते।]
|
संबंधित लेख
श्लोक संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज