श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
द्वादश अध्याय
ग्यारहवें अध्याय के पचपनवें श्लोक में भगवान ने साधक भक्त के पाँच लक्षणों में एक लक्षण ‘संगवर्जितः’ (आसक्ति से रहित) बताया था। इस श्लोक में भगवान संपूर्ण कर्मों के फल त्याग की बात कहते हैं, जो संसार की आसक्ति के सर्वथा त्याग से ही संभव है। इस (सर्वकर्मफलत्याग) का फल भगवान ने इसी अध्याय के बारहवें श्लोक में तत्काल परमशांति की प्राप्ति होना बताया है। अतः यह समझना चाहिए कि केवल आसक्ति का सर्वथा त्याग करने से भी परमशांति अथवा भगवान की प्राप्ति हो जाती है। संबंधः भगवान ने आठवें श्लोक से ग्यारहवें श्लोक तक एक साधन में असमर्थ होने पर दूसरा, दूसरे साधन में असमर्थ होने पर तीसरा और तीसरे साधन में असमर्थ होने पर चौथा साधन बताया। इससे यह शंका हो सकती है कि क्या अंत में बताया गया ‘सर्वकर्मफलत्याग’ साधन सबसे निम्न श्रेणी का है? क्योंकि उसको सबसे अंत में कहा गया है तथा भगवान ने उस (सर्वकर्मफलत्याग) का कोई फल भी नहीं बताया। इस शंका का निवारण करते हुए भगवान सर्वकर्मफलत्याग रूप साधन की श्रेष्ठता तथा उसका फल बताते हैं। |
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