श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
द्वादश अध्याय
कर्मयोग के साधक को अकर्मण्य नहीं होना चाहिए; क्योंकि कर्मफल-त्याग की बात सुनकर प्रायः साधक सोचता है कि जब कुछ लेना ही नहीं है, तो फिर कर्मों को करने की क्या जरूरत! इसलिए भगवान ने दूसरे अध्याय के सैंतालीसवें श्लोक में कर्मयोग की बात कहते हुए ‘मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि’ ‘तेरी कर्म न करने में आसक्ति न हो’- यह कहकर साधक के लिए अकर्मण्यता (कर्म के त्याग) का निषेध किया है। अठारहवें अध्याय के नवें श्लोक में भगवान ने सात्त्विक त्याग के लक्षण बताते हुए कर्मों में फलासक्ति के त्याग को ही ‘सात्त्विक त्याग’ कहा है, न कि स्वरूप से कर्मों के त्याग को। फलासक्ति का त्याग करके क्रियाओं को करते रहने से क्रियाओं को करने का वेग शांत हो जाता है और पुरानी आसक्ति मिट जाती है। फल की इच्छा न रहने से कर्मों से सर्वथा संबंध-विच्छेद हो जाता है और नयी आसक्ति पैदा नहीं होती। फिर साधक कृतकृत्य हो जाता है। पदार्थों में राग, आसक्ति, कामना, ममता, फलेच्छा आदि ही क्रियाओं का वेग पैदा करने वाली है। इनके रहते हुए हठपूर्वक क्रियाओं का त्याग करने पर भी क्रियाओं का वेग शांत नहीं होता। राग-द्वेष रहने के कारण साधक की प्रकृति पुनः उसे कर्मों में लगा देती है। अतः राग-द्वेषादि का त्याग करके निष्काम भावपूर्वक कर्तव्य-कर्म करने से ही क्रियाओं का वेग शांत होता है। जिन साधकों की सगुण-साकार भगवान में स्वाभाविक श्रद्धा और भक्ति नहीं है, प्रत्युत व्यावहारिक और लोकहित के कार्य करने में ही अधिक श्रद्धा और रुचि है, ऐसे साधकों के लिए यह (सर्वकर्मफलत्याग-रूप) साधन बहुत उपयोगी है। भगवान ने जहाँ भी कर्मफल त्याग की बात कही है, वहाँ आसक्ति और फलेच्छा के त्याग का अध्याहार कर लेना चाहिए; क्योंकि भगवान के मत में आसक्ति और फलेच्छा का पूरी तरह त्याग होने से ही कर्मों से सर्वथा संबंध-विच्छेद होता है।[2] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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